रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
बहुगुणित कर कर्मपथ पर तन्तु सद्निर्मेय के
मन डिगाते छद्म लोभन जब खड़े हों सामने
दिग्भ्रमित हो चल न देना लोभनों को थामने
दे क्षणिक सुख फाँसते हों भव-भँवर में कर्म जो
मत उलझना! बस समझना! सन्निहित है मर्म जो
तोड़ना मन-आचरण से बंध भंगुर प्रेय के
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
श्रेष्ठ हो जो मार्ग राही वो सदा ही पथ्य है
हर घड़ी युतिवत निभाना जो मिला कर्तव्य है
राह यह मुश्किल मगर कल्याणकारी सर्वदा
जोड़ राही धैर्यवत नित कर्मफल की सम्पदा
गुप्त होते हैं सृजन पल कर्म-फल प्रतिदेय के
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
जटिल जीवन रागिनी पर शांत अन्तः-स्वर सदा
शांत उर को श्रव्य शाश्वत नाद शुचिकर प्राणदा
दृढ़पदा चित का पथिक पदचिह्न हो केवल सधा
सुप्त प्रज्ञा, मनस व्याकुल, फिर भला क्या सुस्वधा?
साध तप से, दीप सारे प्रज्ज्वलित कर ध्येय के
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय रवि प्रभाकर जी
आपकी टिप्पणी ने इस रचना के हो जाने को ही सार्थक कर दिया है...
सादर आभारी हूँ ..
रचना की भाव दशा को इस प्रकार अनुमोदित करने के लिए धन्यवाद
तोड़ना मन-आचरण से बंध भंगुर प्रेय के
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के.… अशांत हृदय को सांत्वना का सन्देश देती एक गहन रचना। सुंदर शब्द विन्यास और प्रवाह रचना की सुंदरता है। इस सुंदर आध्यात्मिक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
भटके हुओ को प्रशस्त मार्ग पर ले जाती प्रस्तुति बहुत सुन्दर अनुपम
मन डिगाते छद्म लोभन जब खड़े हों सामने
दिग्भ्रमित हो चल न देना लोभनों को थामने
दे क्षणिक सुख फाँसते हों भव-भँवर में कर्म जो
मत उलझना! बस समझना! सन्निहित है मर्म जो -----बहुत सुन्दर पंक्तियाँ ...सार्थक सन्देश/सीख देती हुई
बहुत शानदार गीतिका गीत ...बहुत- बहुत बधाई प्रिय प्राची जी .
आदरणीय प्राची दी,
नमस्कार। इन दिनों जीवन परिस्थितयां थोड़ी विकट और विषम हो गई हैं। मन कुछ भटक सा रहा है। आपका गीत पढ़ कर एक आस सी दिखाई दे रही है। धन्यवाद।
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