" मेरे पास समय बहुत कम है , डाक्टर ने बता दिया है कि कैंसर अपने आखिरी स्टेज में है , प्लीज बेटे को बुला लो अब" | पापा की दर्द भरी आवाज सुनकर वो अपने आप को रोक नहीं सकी , आँसू बेशाख्ता आँखों से बह निकले | माँ तो जैसे जड़ हो गयी थी , सिर्फ सूनी सूनी आँखों से कभी पापा को , तो कभी उसे देखती रहती |
कैसे बताये उनको , कल ही तो उसने फोन किया था भाई को | पूरी बात सुनने से पहले ही बोल पड़ा " मैं बार बार नहीं आ सकता वहां , अभी १५ दिन पहले ही तो आया हूँ | इतनी छुट्टी नहीं मिल सकती मुझे , और हाँ पैसों की जरुरत हो तो मुझे बता देना , भेज दूंगा"|
रात बीती , सुबह हुई | पापा नहीं रहे | हस्पताल के सभी बिल चुकाने के बाद , पापा का पार्थिव शरीर एम्बुलेंस से घर ले आई | और भाई को उसने मैसेज कर दिया " तुम्हारे भेजे हुए पैसों से हस्पताल के बिल चुकाने के बाद करीब छः हज़ार बच गए थे , तुम्हारे अकॉउंट में डलवा दूंगी | और हाँ , अंतिम संस्कार तो मैं करवा दूंगी , अगर छुट्टी मिल जाये तो ब्राह्मणों को भोजन कराने तेरहवीं में आ जाना"|
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आभार सौरभजी..
आपकी लघुकथाओं को लगातार पढ़ रहा हूँ. आप जिस तरह से पारिवारिक-सामाजिक विन्दुओं को महसूस कर उनके पास ताना-बाना बुनते हैं वह आपकी संवेदनशीलता तथा सतत अभ्यासरत होने द्योतक है. प्रस्तुत लघुकथा पर आदरणीया राजेश कुमारजी के विचार तथ्यात्मक हैं.
प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई.
आभार सुभ्रांशुजी , आपने अपने विचार रखे | कभी कभी चीजे स्पस्ट नहीं हो पातीं हैं , शायद मैं स्पस्ट नहीं कर पाया |
आदरणीय विनय कुमार जी,
देर से आने के लिये खेद है..आपकी कथाओं का इन्तजार रहता है...
एक बेटी को सशक्त दिखाते हुये आपने आज की कई वास्तविक घटनाओं को आंखो के सामने से गुजारा है...बधाई...
कथा में अगर पुत्र एक नाकारा की तरह दिखाया गया है...अगर उसे किसी आस पास की जगह पर रहते हुये कहा गया होता तो कथा में उसके इस भाव को स्पष्ट रुप से बताया जा सकता था. अगर वो विदेश में रहता हो तो इतनी जल्दी दुबारा आना सम्भव नहीं होगा. जैसा कथा में उसे 15 दिन पहले ही आये हुये बताया गया है, और जैसा राजेश कुमारी जी ने कहा कि अपने एक कर्तव्य से वो विमुख नहीं है और धन की पूर्ति करता रह रहा है...
सादर.
आभार लक्ष्मण धामीजी..
आ0 विनय कुमार जी भाव विभोर करती इस रचना के लिए कुछ भी कह पाना सामथ्र्य में नहीं । हार्दिक बधाई स्वीकारें । अपनी किसी गजल का एक शेर इस कथा के पक्ष में उद्धृत कर रहा हूँ । यथा-
कहानी झूठ गढ़ली क्यों, पराई बेटियाँ कह कर
जनम से देखता मैं तो हुआ बेटा पराया है
आभार डॉ आशुतोषजी एवम जवाहरलाल जी..
आदरणीय विनय जी भावुक कर देने वाली इस सुंदर रचना के लिए तहे दिल बधाई सादर
आज का सच ...बस ..और क्या कहूं ...
आभार जितेंद्रजी एवम राजेशजी | दरअसल ये कहानी एक बेटी की मनोदशा की है जिसने पिता की हर तरह से देखभाल की , बेटे ने पैसे का फ़र्ज़ ही निभाने का प्रयत्न किया , इसीलिए बचे हुए पैसे उसके खाते में जमा करवाने के लिए उसने कहा | शायद पूरी तरह स्पस्ट नहीं कर पाया मैं | इसी तरह मार्गदर्शन करते रहिये आप सब |
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