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चल पड़ी नूतन हवा जब से शहर की ओर यारो
गाँव के आँगन उदासी, भर रही हर भोर यारो
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अब बुढ़ापा द्वार पर हर घर के बैठा है अकेला
खो गया है आँगनों से बचपनों का शोर यारो
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ढूँढते तो हैं शिरा हम, गाँव जाती राह का नित
पर यहाँ जंजाल ऐसा मिल न पाता छोर यारो
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हो गये कमजोर रिश्ते, अब दिलों के धन की खातिर
मंद झोंके भी चलें तो टूटती हर डोर यारो
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हद से जादा भी उजाला, भय जगा देता है मन में
ये कहा किसने, जगाता भय अँधेरा घोर यारो
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कोसते रावण को हर दिन, चल पड़े जो पथ उसी के
किस हवस ने कर दिया अब, आचरण कमजोर यारो
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सोच लेना तुम मनुजता, है अभी जीवित जगत में
देख बेबस की दशा यदि नम हुई है कोर यारो
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क्या सिनेमा से प्रभावित हम हुए हिंसा के आदी ?
अन्यथा अब कत्ल तक देते कहाँ झकझोर यारो
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रो रहा है जो ‘मुसाफिर’, भीड़ से छुप के कहीं गर
सच थकन से तो नहीं पर, दुख से दुखता पोर यारो
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर‘
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यह गजल आ0 भाई सौरभ जी के मार्गदर्शन में पूरी की गयी है । उनकी बेसकीमती सलाह के लिए मैं उनका आभारी हूँ । उन्होंने अपना कीमती समय मेरा मार्गदर्शन करने में लगाया इसके लिए उनका हार्दिक धन्यवाद ।
Comment
आदरणीया मंजरी जी, गजल को इतना अधिक मान देने के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय भाई जवाहरलाल जी, गजल पर आपकी उपस्थिति से प्रसन्नता हुई । आपने सही कहा हमें रास्ते सुझाई नहीं दे रहे । या फिर यों भी कह सकते हैं कि हम मार्ग तलाशने का प्रयत्न ही नहीं कर रहे । हम यथास्थिति के इतने आदी हो गये हैं कि किसी भी बदलाव के लिए सहज तैयार ही नहीं होते । फिर भी आशा करनी ही होगी कि वह भोर अवश्य आयेगी जिसमें हमें रास्ते सुझाई देगे ।
आदरणीय भाई गोपाल नारायन जी , सदर अभिवादन । आपका स्नेहाशीष और प्रशंसा पाकर अति प्रसन्नता हुई । गजल में निहित कमियों के विषय में भी मार्गदर्शन करते रहिए । शुभ- शुभ ......
आदरणीय भाई सुशील सरना जी , गजल को इतना मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद । ओ बी ओ परिवार के आप जैसे सभी सदस्यों के स्नेह का ही परिणाम है कि मैं गजल लेखन में निरंतर सुधार कर पा रहा हूं । स्नेह बनाये रखें यही कामना है ।
आदरणीय भाई गिरिराज जी, की सराहना के लिए हार्दिक आभार । गजल पर आपकी उपस्थिति से निरंतर हौसला बढता है और खुशी होती है । अतः उपस्थिति बनाए रख मार्गदर्शन करते रहें । पुनः हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय लक्ष्मण धामीजी,
सर्वप्रथम, आपकी ग़ज़ल में मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है कि आप इसकी प्रस्तुति के क्रम में धन्यवाद ज्ञापित करें. हमने तो बस इसके लिहाज पर नज़र डाली थी, बस ! आपकी ग़ज़ल इसी प्रारूप में थी. और क्या खूब ग़ज़ल हुई है !
बधाई स्वीकारें, आदरणीय.
सादर
रो रहा है जो ‘मुसाफिर’, भीड़ से छुप के कहीं गर
सच थकन से तो नहीं पर, दुख से दुखता पोर यारो
सभी दुखी हैं रस्ते दिखाई नहीं पड़ते या हम पहचान नहीं पाते
रास्ते पहचान पायें कब वो होगी भोर यारों ...सादर!
सोच लेना तुम मनुजता, है अभी जीवित जगत में
देख बेबस की दशा यदि नम हुई है कोर यारो
बेहतरीन i बेहतरीन i बेहतरीन i साधुवाद धामी जी
अब बुढ़ापा द्वार पर हर घर के बैठा है अकेला
खो गया है आँगनों से बचपनों का शोर यारो
निःशब्द हूँ आपकी इस खूबसूरत ग़ज़ल की प्रस्तुति पर .... कृपया हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय
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