२२ १२२२ २१२ २१२ २२
कोशिस मसीहा बनने की जब कर रहा है तू
तो सूलियों पे चढ़ने से क्यूँ डर रहा है तू ?
मैंने सुना तू सोने को मिट्टी बताता है
क्यूँ फिर तिजोरी सोने से ही भर रहा है तू ?
सबको दिखाया करता है तू मुक्ति के पथ ही
खुद सोच क्यूँ घुट घुट के ही यूं मर रहा है तू ?
तूने उठायी उंगली सभी के चरित्र पर है
सबको खबर रातों में कहाँ पर रहा है तू
ले नाम क्यूँ मजहब का लड़ाता सभी को है
क्या भारती की पीड़ा ऐसे हर रहा है तू
जिस देश में मुफलिस को नहीं खाने को रोटी
काजू चबेने जैसे वहाँ चर रहा है तू
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ सर ,आदरणीय गिरिराज भाई साब ..राचन पर आपकी मार्गदर्शक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद ..इस ग़ज़ल के लिए मैंने जो बह् इस ग़ज़ल के टाइप की थी वो २२ १२२२ २१२ २१२ २२ की जगह २२१२/२२२१/२२१२/२२ थी पता नहीं पर पेस्ट करते वक़्त ऐसा कैसे हो गया ..कृपया अब बताने का कष्ट करें कि ये बह् सही है या नहीं ...सादर प्रणाम के साथ
ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए बधाई. बह्र के वज़न पर एक बार और नज़र डालें, आदरणीय
आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्र जी,
बहुत ख़ूब ! उम्दा ग़ज़ल, हर्सिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! --
"कोशिस मसीहा बनने की जब कर रहा है तू
तो सूलियों पे चढ़ने से क्यूँ डर रहा है तू ?"
आदरनीय आशुतोष भाई , ग़ज़ल बहुत बढ़िया कही है , आपने , मतला और भी खूब सूरत है , आपको दिली बधाइयाँ ॥
बह्र शायद सही नही लिखे हैं आप , ऐसा मेरा अंदाज़ा है , सही बात जानने के लिये गुणी जनो का इंतिजार किया जाना चाहिये ।
तूने उठायी उंगली सभी के चरित्र पर है
सबको खबर रातों में कहाँ पर रहा है
आशुतोष जी i बहुत सुन्दर i मर्मस्पर्शी i
बेहतरीन अश:आर कहें है आपने आदरणीय डा. आशुतोष जी, आपको बहुत बहुत बधाई
कोशिस मसीहा बनने की जब कर रहा है तू
तो सूलियों पे चढ़ने से क्यूँ डर रहा है तू ?
बहुत खूब आदरणीय डॉ आशुतोष जी .... बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल … ये शे'र तो गज़ब का है .... इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
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