अटूट बंधन
कल रात भर आसमान रोता रहा
धरती के कंधे पर सिर रख कर
इतना फूट फूट कर रोया कि
धरती का तन मन
सब भीगने गया
पेड़ पौधे और पत्ते भी
इसके साक्षी बने
उसके दर्द का एक एक कतरा
कभी पेडो़ं से कभी पत्तों में से
टप-टप धरती पर गिरता रहा
धरती भी जतन से उन्हें
समेटती रही,सहेजती रही
और..
दर्द बाँट्ने की कोशिश करती रही
ताकि उसे कुछ राहत मिल जाए
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महेश्वरी कनेरी
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
एक सीधी-सादी बात सीधे-सादे ढंग से कही गयी. बहुत खूब आदरणीया ! इस रचना के लिए हार्दिक शभकामनाएँ !!
सुन्दर प्रस्तुति आदरणीया हार्दिक बधाई आपको । … सादर
आदरणीया महेश्वरी कनेरी जी,
हृदयगत उद्भावना की कविता, अति सुन्दर; हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
बहुत सही लिखा है आप ने । बहुत बधाई
बहुत सुन्दर !! आदरणीया , आपको दिली बधाइयाँ ॥
आदरणीया
कबीर की याद आ गयी i उनकी एक उलटवांसी है - भीगे कम्बल , बरसै पानी i
बहुत ही सुंदर भाव, शायद! दर्द बांटने से ही राहत मिलती है. बहुत बहुत बधाई आपको आदरनीय महेश्वरी जी
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