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अटूट बंधन

कल रात भर आसमान रोता रहा

धरती के कंधे पर सिर रख कर

 इतना फूट फूट कर रोया कि

 धरती का तन मन

सब भीगने गया

पेड़ पौधे और पत्ते भी

इसके साक्षी बने

उसके दर्द का एक एक कतरा

कभी पेडो़ं से कभी पत्तों में से

टप-टप धरती पर गिरता रहा

धरती भी जतन से उन्हें

समेटती रही,सहेजती रही

और..

दर्द बाँट्ने की कोशिश करती रही

ताकि उसे कुछ राहत मिल जाए

**********************

महेश्वरी कनेरी

मौलिक/अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2014 at 11:52pm

एक सीधी-सादी बात सीधे-सादे ढंग से कही गयी. बहुत खूब आदरणीया ! इस रचना के लिए हार्दिक शभकामनाएँ !!

Comment by वेदिका on July 20, 2014 at 4:39pm
धरती के कंधे पर आसमान का सर रख के रोना .. पेड़ पौधों पत्तियों का भीगना तरबतर होना
प्रतीक बिम्ब बहुत खूब लगे।
शुभकामनाएं आदरणीया महेश्वरी जी!
Comment by ram shiromani pathak on July 20, 2014 at 2:52pm

सुन्दर प्रस्तुति  आदरणीया हार्दिक बधाई आपको  । … सादर

Comment by Santlal Karun on July 20, 2014 at 8:29am

आदरणीया महेश्वरी कनेरी जी,

हृदयगत उद्भावना की कविता, अति सुन्दर; हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !  

Comment by kalpna mishra bajpai on July 18, 2014 at 10:21pm

बहुत सही लिखा है आप ने । बहुत बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 17, 2014 at 10:02pm

बहुत सुन्दर !! आदरणीया , आपको दिली बधाइयाँ ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 17, 2014 at 3:48pm

आदरणीया

कबीर की याद आ गयी i उनकी एक उलटवांसी है -  भीगे कम्बल , बरसै  पानी i

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 16, 2014 at 9:35pm

बहुत ही सुंदर भाव, शायद! दर्द बांटने से ही राहत मिलती है. बहुत बहुत बधाई आपको आदरनीय महेश्वरी जी

कृपया ध्यान दे...

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