निराशा की ऊँची लहरों
और आशा के सपाट प्रवाह के बीच
मन हिचकोले खा रहा है
कभी निराशा अपने पाश में बाँध कर खींच ले जाये
कभी आशाएँ
मुझे ले जाकर किनारे पहुँचा दें
कभी सोचता हूँ
बह चलूँ लहरों के साथ
कभी लगे
बाहर आ जाऊँ इस गर्दिश से
ये किस मुकाम पर हूँ
ये कौन सा मोड़ है
पल-पल उठती रौशनी भी
भ्रमित कर दे कुछ देर को
कि रास्ता बदल लूँ
या चलता रहूँ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय शिज्जु भाई , दो राहे पर खड़े मन की स्थिति को बहुत सुन्दर शब्द दिये हैं ॥ आपको बधाइयाँ ॥
आदरणीय शिज्जु शकूर जी,
आशा-निराशा,लक्ष्य-दिग्भ्रम की मानवीय संवेदनात्मक पर उत्कृष्ट कविता; हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
शिज्जु जी बहुत सुंदर गजल लिखते हैं आप । बहुत बधाई
सच कहा आपने आदरणीय शिज्जू जी, इंसान के जीवन में कई उतार-चढाव आते है जहाँ आशा व् निराशा दोनों दिखने लगती है उस समय शायद यही सब कुछ होता है. रचना पर आपको बहुत-२ बधाई
आशा और निराशा के बीच जूझती रहती है जिन्दगी ,इनके बीच ही जीना है जिसने इनको महसूस करना छोड़ दिया वो सच्चा संत बन गया|अपने मन की उलझन को बहुत सुन्दरता से लिखा है |बहुत- बहुत बधाई इस रचना के लिए
आदरणीय ज़ैफ़ साहब आपका हार्दिक आभार
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर आपका हार्दिक आभार
प्रिय शिज्जू जी
क्या बात है ?
मै इधर जाऊ या उधर जाऊ i
बड़ी मुश्किल में हू मै किधर जाऊ ?
अतुकांत में भी छा गए दोस्त i
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