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निराशा की ऊँची लहरों

और आशा के सपाट प्रवाह के बीच

मन हिचकोले खा रहा है

कभी निराशा अपने पाश में बाँध कर खींच ले जाये

कभी आशाएँ

मुझे ले जाकर किनारे पहुँचा दें

कभी सोचता हूँ

बह चलूँ लहरों के साथ

कभी लगे

बाहर आ जाऊँ इस गर्दिश से

 

ये किस मुकाम पर हूँ

ये कौन सा मोड़ है

पल-पल उठती रौशनी भी

भ्रमित कर दे कुछ देर को

कि रास्ता बदल लूँ

या चलता रहूँ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by गिरिराज भंडारी on July 20, 2014 at 10:53am

आदरणीय शिज्जु भाई , दो राहे पर खड़े मन की स्थिति को बहुत सुन्दर शब्द दिये हैं ॥ आपको बधाइयाँ ॥

Comment by Santlal Karun on July 20, 2014 at 7:40am

आदरणीय शिज्जु शकूर जी,

आशा-निराशा,लक्ष्य-दिग्भ्रम की मानवीय संवेदनात्मक पर उत्कृष्ट कविता; हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by kalpna mishra bajpai on July 18, 2014 at 10:18pm

शिज्जु जी बहुत सुंदर गजल लिखते हैं आप । बहुत बधाई 

Comment by वेदिका on July 18, 2014 at 11:41am
क्या बात है शिज्जू जी! गजल में तो आप माहिर थे ही, अतुकांत में भी आपने लोहा मनवा लिया। बहुत खूब रचना हुयी है। सुन्दर रचना के अंत के शब्द और भाव चयन को लेकर तो अद्भुत कमाल सृजित किया।
बधाइयाँ!!
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 17, 2014 at 11:31pm

सच कहा आपने आदरणीय शिज्जू जी, इंसान के जीवन में कई उतार-चढाव आते है जहाँ आशा व् निराशा दोनों दिखने लगती है उस समय शायद यही सब कुछ होता है. रचना पर आपको बहुत-२ बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 17, 2014 at 9:51pm

आशा और निराशा के बीच जूझती रहती है जिन्दगी ,इनके बीच ही जीना है जिसने इनको महसूस करना छोड़ दिया वो सच्चा संत बन गया|अपने मन की उलझन को बहुत सुन्दरता से लिखा है |बहुत- बहुत बधाई इस रचना के लिए  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 17, 2014 at 9:40pm

आदरणीय ज़ैफ़ साहब आपका हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 17, 2014 at 9:39pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर आपका हार्दिक आभार

Comment by Zaif on July 17, 2014 at 5:06pm
Nice sir ji.
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 17, 2014 at 4:10pm

प्रिय शिज्जू जी

क्या बात है ?

मै  इधर   जाऊ   या   उधर  जाऊ  i

बड़ी मुश्किल में हू मै  किधर जाऊ ?

अतुकांत में भी छा गए दोस्त i

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