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दुखों से दोस्ती रख कर सुखों के घर बचाने हैं
मुझे अपनी खुशी के रास्ते खुद ही बनाने हैं
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परिंदों को पता तो है मगर मजबूर हैं वो भी
नजर तूफान की कातिल नजर में आशियाने हैं
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पलों की कर खताएँ कुछ मिटाना मत जमाने तू
किसी का प्यार पाने में यहाँ लगते जमाने हैं
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न जाने कौन सी दुनिया बसाकर आज हम बैठे
गलत मन के इरादे हैं गलत तन के निशाने हैं
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खिलाफत रूढि़वादों की सिखाना है भला लेकिन
सिखाओगे ये तुम कैसे हिमायत में सयाने हैं
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न आओ तुम समर्थन में हमें इतना ही कहना बस
यही आरोप तुम पर भी समय ने कल लगाने हैं
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शहीदों ने फिकर कब की सरों के कट के गिरने की
लड़ेंगे खाक जालिम से जिन्हें परचम झुकाने हैं
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
अच्छी ग़ज़ल है ... दाद क़ुबूल करें
वैसे मेरे कुछ संदेह हैं जो यहाँ रखे जा रहा हूँ .. इनका समाधान हुआ तो आभारी रहूँगा
खिलाफत शब्द का प्रयोग अर्थ के मायने में विरोधाभासी दिख रहा है
फिकर शब्द का प्रयोग मात्रिकता के हवाले से परेशान कर रहा है
और सबसे बड़ा संदेह ये हिया कि क्या हम बचाने/बनाने को काफिया बना सकते हैं,कहीं ईता ऐब तो नहीं आ जायेगा
/यही आरोप तुम पर भी समय ने कल लगाने हैं/
इस मिसरे में मुझे वैसा अटपटापन नहीं दिख रहा जैसा सौरभ जी कह रहे हैं, इसलिए ये भी मेरे लिए संदेह का विषय है, शायद मुझ पर दिल्ली का असर ज़ियादा हो ...
इस शेर में उलझा हूँ ...
परिंदों को पता तो है मगर मजबूर हैं वो भी
नजर तूफान की कातिल नजर में आशियाने हैं
सानी में नज़र किसकी है ... अगर तूफ़ान की नज़र है तो आगे देखें तो कातिल भी तूफ़ान ही है और आगे कातिल की नज़र का भी जिक्र है ... फिर नज़र शब्द का दोहराव क्यों ?
अगर नज़र परिंदों की है तो नज़र तूफ़ान की क्यों कहा गया ? कहीं पहला शब्द नज़र भर्ती का तो नहीं है
भी शब्द की शेर में क्या ज़रुरत है !!!
बेहतर प्रयास है और परिणाम भी सही है. बधाई कुबूल कीजिये भाईजी.
न आओ तुम समर्थन में हमें इतना ही कहना बस
यही आरोप तुम पर भी समय ने कल लगाने हैं
समय ने कल लगाने हैं.. यह दिल्ली में चलता है, जानता हूँ. लेकिन हिन्दी-व्याकरण इस तरह से कारक की ने विभक्ति को नहीं स्वीकारता. ग़ज़ल के बारे में नहीं कह सकता. टकसाली जुबान के नाम पर शायद कुछ लोग इसकी इजाजत दे दें.
बहरहाल, शेर कहन के लिहाज से बहुत बड़ा है.
शुभ-शुभ
आदरणीय लक्ष्मण भाई , अंतिम अश आर तक ग़ज़ल बहुत बेमिसाल कही है , पूरी गज़ल के लिये आपको बधाइयाँ ॥
बस - नज़र वाले शे र मे दो बार नज़र कहने से सुन्दरता कम हो रही है , पहले आये नज़र के स्थान मे अभी कह सकते हैं , सोचियेगा , ज़रूरी नही है मिसरा यों हो जाये गा - अभी तूफान की कातिल नजर में आशियाने हैं ।
धामी जी
गुनीजनो ने कई शेर उधृत किये i अब उन्हें क्या दुहराए i बहुत सुन्दर ही कहूँगा i
आदरणीय भाई विजय शंकर जी, गजल का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई विजय निकोर जी , आपकी उपस्थिति से गजल का मान अत्यधिक बढ़ गया । निरंतर आपका मार्गदर्शन ही मेरा मार्ग सरल कर देता है । स्नेह बनाए रखें । शुभ -शुभ ....
//पलों की कर खताएँ कुछ मिटाना मत जमाने तू
किसी का प्यार पाने में यहाँ लगते जमाने हैं
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न जाने कौन सी दुनिया बसाकर आज हम बैठे
गलत मन के इरादे हैं गलत तन के निशाने हैं//
बहुत खूब...बहुत खूब। हार्दिक बधाई।
परिंदों को पता तो है मगर मजबूर हैं वो भी
नजर तूफान की कातिल नजर में आशियाने हैं
निःशब्द हूँ आपकी इस प्रस्तुति पर आरणीय लक्ष्मण जी हर शेर को आपने अपनी ग़ज़ल में बेहद खूबसूरत अंजाम दिया है .... इस बेहद उम्दा ग़ज़ल के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें - चार लाइनें आपके नज़र :
हौसला कभी करते न वो
ग़र होती खबर तूफ़ान की
पंखों से कह देते न करना
कभी चाहतें आसमान की
@सुशील
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