"अरे पनीर की सब्ज़ी कहा है ? जल्दी लाओ , यहाँ ख़त्म हो गयी |"
बड़े भैया ने आवाज़ लगायी और आगे बढ़ गए | कई पंगतों में लोग बैठ कर भोजन कर रहे थे , काफी गहमागहमी थी दरवाजे पर | सारे रिश्तेदार और अगल बगल के गांव से भी लोग खाने आये हुए थे | थोड़ी दूर ज़मीन पर कुछ और लोग भी बैठे थे जो हर पंगत के उठने के बाद पत्तल वगैरह बटोरते , उसे ले जाकर किनारे रख देते और जो कुछ भी खाने लायक बचा होता था , वो सब उनके बर्तनों में रख लेते थे |
खटिया पर लेटे हुए बाबूजी सब देख रहे थे | उसके दिमाग में पिछले कुछ सालों की घटनाएँ घूमने लगीं | माँ एकदम से बीमार पड़ी और उसने बिस्तर पकड़ लिया | बड़ा बेटा विदेश में था , छोटे के साथ ही रहते थे दोनों | खाने के नाम पर पतली खिचड़ी मिल जाती थी माँ को , लेकिन शायद बुढ़ापे में इच्छाएं और जोर मारने लगती हैं , माँ की भी इच्छा होती थी कि वो कुछ चटपटा खाए , पनीर तो बहुत प्रिय था उसे | एक आध बार कहा भी उसने कि पनीर खाने का मन है लेकिन वो कह नहीं पाये बहु से |
अचानक वो उठे , धीरे से एक पनीर का डोंगा उठाया और ले जाकर उन ज़मीन पे बैठे लोगों को दे दिया | उन लोगों की ख़ुशी का पारावार नहीं था और बाबूजी ने एक नज़र आसमान की ओर देखा और उनकी आँखों से दो बूँद आँसू टपक पड़े |
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आभार लक्ष्मण प्रसादजी..
विनय जी
बाबू जी ने एक नजर आसमान कीओर देखा ------ लघु कथा का यही सार है i अति सुन्दर i
आपकी लघु कथा...बूढ़ी काकी ...की याद दिला दी....शायद अब भी ऐसा होता होगा...? लेकिन मैं नहीं जानती बूढ़ी काकी नामक कहानी किस लेखक की कालजयी रचना है/सादर.
माँ तो इच्छा मार कर रह जाती थी जिसे पनीर बहुत पसंद था, गरीबों को झूटन में से पनीर इकट्ठी करते देख पनीर का भरा
डोंगा उनके सामने रख दिया | सच्चे मन से श्राद्ध करने का भाव लिए रची सुंदर रचना के लिए बधाई
आभार गिरिराज भण्डारीजी एवम जितेंद्रजी..
आभार वंदनाजी , डॉ विजय शंकरजी एवम राजेश कुमारीजी..
आपकी लघुकथा बहुत ही सुंदर सार्थक सन्देश देती है आदरणीय विनय जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें
आदरणीय विनय भाई , सही में देखें तो उतना खाना खिलाना ही सार्थक हुआ जितना गरीबों में बंटा | आपको लघु कथा के लिए बधाइयाँ |
बहुत अच्छी लघु कथा जिसके भाव दिल को छू गए बधाई आपको |
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