सोचा था आईने की तरह
साफ़ रखूँगी अपना चेहरा
पर कुछ तो है जो छिपा जाती हूँ
यूँ भाव चेहरे के बदल लेती हूँ
कि कहीं प्रतीयमान न हो जाये|
बोलती थी कभी बेधड़क हो
कुछ तो है जो किसी कोने में
मौनव्रत रख बैठ जाती हूँ
कि कही कुछ प्रतीप न हो जाये|
आँखों में भी दिखता था कभी
दूसरे की गलत बातो का प्रतिकार
पर किसी का तो डर है जो
अब आँखों को झुका लेती हूँ
कि कही कोई प्रतिलोम ना हो जाये|
किसी भी घटना पर कुछ कह ना दूँ
इसी कारण खुद को परे कर लेती हूँ
सुनने की आदत नहीं है अतः
झगड़े से खुद को ही परे रख
अपने उद्वेलित भाव छुपा लेती हूँ
कि कही कोई प्रतिवाद ना हो जाये|
किसी भी अंगप्रत्यंग से
प्रतिबोध झलक ना जाये
इसी डर से अब मैं अक्सर
लोगो से कतराने लगी हूँ
भीड़ से परे रखती हूँ खुद को
कि कोई कही प्रतिघाती न हो जाये||
सविता मिश्रा
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
कई बार ज़रूरी हो जाता है कि न दिखे चेहरा अंतर का आईना....
ऐसी ही परिस्थितियों को शब्दबद्ध करती सुन्दर अभिव्यक्ति
हार्दिक बधाई आ० सावित्री मिश्रा जी
जिंतेंद्र भाई और गिरिराज भैया हार्दिक आभार आप दोनों का दिल से
मन के भाव को, बहुत सुन्दरता से बयां करती रचना पर आपको हार्दिक बधाई आदरणीया सविता जी
सुन्दर रचना , आदरणीया , बधाई |
आमोद भाई शुक्रिया आपका
लिखते वक्त प्रतिवाद और प्रतिघात शब्द आये तो दिल ने कहा क्यों न प्र वाले ही शब्दों से अंत करे सभी और कर दिए आप बडो का प्रशंसनीय शब्द सुनने के लिय शायद .......सादर आभार आदरणीय ...सादर नमस्ते
सविता जी
आपने प्रतीयमान ,प्रतीप ,प्रतिलोम, प्रतिवाद और प्रतिघात का प्रयोग किया है प्र से कोई विशेष प्रेम या प्रयोजन ?------ प्रशंसनीय !
बहुत बहुत शुक्रिया आपका प्रोत्साहन भरे शब्द बोलन एके लिए
शानदार अभिव्यक्ति .... बधाई हो ॥ उम्दा रचना ... बधाई स्वीकार करें ...
मन के द्वन्द से उपजे भाव रचना बन कर प्रस्फुटित हुए ,बहुत खूब बधाई आपको इस सुन्दर रचना के लिए |
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