होते जो बहुरूपिया, मिले न उनकी थाह |
मन में अंतरघात है, सुर है मधुर अथाह ||
गीली लकड़ी की तरह, सुलगी वो दिन रात |
सिसक-सिसक कर जल मुई,हृदय वेदना घात ||
.
जीवन के दिन चार हैं, नेक करें कुछ काज
अंत समय कब हो निकट,नहीं पता कल आज ||
किस्मत में जो था मिला, सर फोड़े क्यों रोय |
पूर्व जन्म का कर्म है, अब रोये क्या होय ||
मीना पाठक
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय जी, आ० अजय जी, आ० लक्ष्मण भाई आप सभी का बहुत बहुत आभार | सादर
आदरणीय सौरभ सर प्रयासरत हूँ और रहूँगी पर सफलता कितनी मिलेगी ये नही जानती ......आप सभी का स्नेहाशीष मिलता रहे यूँ ही इसी आशा के साथ बहुत बहुत आभार आप का | सादर
बहुत बहुत आभार आ० नरेंद्र सिंह जी | सादर
दोहे सराहने हेतु सादर आभार आ० प्रदीप सर
आदरणीय मीना बहन इन मनमोहक दोहों के लिए बहुत बहुत बधाई ।
अति उत्तम
आपके इस गंभीर प्रयास पर मन बहुत प्रसन्न है आदरणीया. इस प्रयास को सतत और दीर्घकालिक बनायें.
सादर
सादर बधाई, सार्थक सन्देश, वस्तु स्थिति को दर्शात हुआ .
आदरनीय राजेश कुमारी जी दोहे सराहने हेतु बहुत बहुत आभार
सही कहा आपने ..सहमत हूँ ..मार्गदर्शन हेतु पुन: आभार
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