देश है नवीन किन्तु, राष्ट्र है सनातनी ये, मान्यता और संस्कार की लिये निशानियाँ
था समस्त लोक-विश्व क्लिष्ट तम के पाश में, भारती सुना रही थी नीति की कहानियाँ
संतति प्रबुद्ध मुग्ध थी सुविज्ञ सौम्य उच्च, बाँचती थी धर्म-शास्त्र को सदा जुबानियाँ
स्वीकार्यता चरित्र में, प्रभाव में उदारता, शांत मंद गीत में सदैव थीं रवानियाँ
खिड़कियाँ खुली रखीं, खुले रखे थे द्वार भी, शांति-ज्ञान-भक्ति का सुदीप भी जला रहा
किन्तु आँधियाँ चलीं कि राख-धूल भर गयी, राक्षसी प्रहार झेलने का मामला रहा
हत रहा था भाग्य किन्तु चेतना जगी रही, भारती का रूप दिव्य शस्य-श्यामला रहा
सहस्र वर्ष ग्लानि की अमावसें हुई विदा, स्वतंत्र सूर्य शक्ति का व्यापना भला रहा
नीतियाँ बनीं यहाँ कि तंत्र जो चला रहा, वो श्रेष्ठ भी दिखे भले, परन्तु लोक-छात्र हो
तंत्र की कमान जन-जनार्दनों के हाथ हो, त्याग दे वो राजनीति जो लगे कुपात्र हो
भूमि-जन-संविधान, विन्दु हैं ये देशमान, संप्रभू विचार में न ह्रास लेश मात्र हो
किन्तु सत्य है यही सुधार हो सतत यहाँ, ताकि राष्ट्र का समर्थ शुभ्र सौम्य गात्र हो
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--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विजय जी, आपकी सम्मति मिली मेरा रचनाकर्म सार्थक हुआ.
अनुमोदन हेतु सादर धन्यवाद.
आदरणीय सौरभ भाईजी,
सभी पंक्तियों में ओज है प्रवाह है भारत का इतिहास है वर्तमान है अच्छे भविष्य के लिए कुछ सही सुझाव भी हैं और शुरुवात भी शानदार हुई है........
देश है नवीन किन्तु, राष्ट्र है सनातनी ये, मान्यता व संस्कार की लिये निशानियाँ
स्वीकार्यता चरित्र में, प्रभाव में उदारता, शांत मंद गीत में सदैव थीं रवानियाँ
हत रहा था भाग्य किन्तु चेतना जगी रही, भारती का रूप दिव्य शस्य-श्यामला रहा
सहस्र वर्ष ग्लानि की अमावसें हुई विदा, स्वतंत्र सूर्य शक्ति का व्यापना भला रहा
पाठक का सीना पढ़ते - पढ़ते ही गर्व से फूलने लगता है।
नीतियाँ बनीं यहाँ कि तंत्र जो चला रहा, वो श्रेष्ठ भी दिखे भले, परन्तु लोक-छात्र हो
तंत्र की कमान जन-जनार्दनों के हाथ हो, त्याग दे वो राजनीति जो लगे कुपात्र हो
भूमि-जन-संविधान, विन्दु हैं ये देशमान, संप्रभू विचार में न ह्रास लेश मात्र हो
किन्तु सत्य है यही सुधार हो सतत यहाँ, ताकि राष्ट्र का समर्थ शुभ्र सौम्य गात्र हो
मन की बात कह दी कुछ कठोरता के साथ, लेकिन अच्छी सलाह भी दे दी ,
काश इस घनाक्षरी की प्रतियाँ लोक सभा, राज्य सभा, विधान सभा के सभी सदस्यों मंत्रालय सचिवालय में बट जाती और वे इस पर अमल करते तो अच्छे दिन अवश्य आ जाते॥
आदरणीय क्षमा प्रार्थना के साथ अपनी बात कह रहा हूँ........ पूरी 12 पंक्तियों में प्रवाह है किंतु प्रथम पंक्ति का द्वितीय चरण कुछ बाधित लगता है ( शायद मात्रा कम / ज़्यादा है )
मान्यता व संस्कार की लिये निशानियाँ ..... “ व ” अवरोध पैदा करता है इसे हटा देने से ...
देश है नवीन किन्तु, राष्ट्र है सनातनी, ये मान्यता, संस्कार की लिये निशानियाँ
अथवा......देश है नवीन किन्तु, राष्ट्र है सनातनी, मान्यता, संस्कार की लिये हुए निशानियाँ
भाईजी आपकी प्रतिक्रिया से मुझे भी कुछ सीखने मिलेगा , धृष्टता के लिए पुनः क्षमा चाहता हूँ
सादर
आ० भाई सौरभ जी , इस समझाईस भरी रचना के लिए हार्दिक बधाई .
बहुत सुंदर रचना. हार्दिक बधाई आपको आदरणीय सौरभ जी
सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय सौरभ जी।/सादर
आदरणीय सौरभ जी
आपने बहुत अच्छा समझाया i आपका आभार i
बहुत खुबसुरत .._/\_
बहुत कठिन है ऐसी उत्कृष्ट रचना का सर्जन।
//खिड़कियाँ खुली रखीं, खुले रखे थे द्वार भी, शांति-ज्ञान-भक्ति का सुदीप भी जला रहा
किन्तु आँधियाँ चलीं कि राख-धूल भर गयी, राक्षसी प्रहार झेलने का मामला रहा //
अलौकिक बिम्ब बनाती इस सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय सौरभ जी।
आदरणीय विजयजी, आपका औदार्य मुझे अभिभूत कर रहा है.
प्रस्तुति को सम्मान देने के लिए आपका सादर आभार
भाई रामशिरोमणी, आपकी उपस्थिति ने मुझे एक बार ऊर्जस्वी कर दिया है. विश्वास है, आपका भी रचनाकर्म सतत बना रहेगा.
शुभ-शुभ
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