अपने ही घर में दासी हिंदी
हिंदी धीरे- धीरे समृद्ध हुई और फली फूली है। संस्कृत के सरल शब्दों, क्षेत्रीय बोलियाँ / भाषाओं को लेकर आगे बढ़ी, पवित्र गंगा की तरह लगातार कठिनाईयों को पार करते हुए । उर्दू , अरबी, फारसी आदि भी छोटी नदियों की तरह इसमें शामिल होती गईं जिससे हिंदी और मधुर हो गई। आज हिंदी के पास विश्व की किसी भी भाषा से अधिक शब्द हैं। लेकिन आजादी के बाद से सरकार की नीति से हिंदी निरंतर उपेक्षित होती गई। हिंदी के शब्द कोष में (शायद) 13 लाख से भी अधिक शब्द हैं मगर किस काम का जब हम भारतीय ही उसका उपयोग नहीं करना चाहते। ये तो वही बात हुई कि स्वादिष्ट 56 भोग तैयार है, देशी विदेशी सब के लिए, मगर खाने वाले नखरे दिखाते हैं , कुतर्क करते हैं , तबियत खराब होने का बहाना बनाते हैं। विदेशी मेहमानों को क्या दोष दें जब उसे देशी मेज़बान ही नहीं खाना चाहते । हमारे दक्षिण में ही इस भोग को देखते ही उल्टी हो जाती है हिंदीरिया रोग (शायद डायरिया की तरह हो) का डर बना रहता है इसलिए हमेशा विरोध करते रहते हैं कि कहीं कोई हिंदी का स्वादिष्ट भोजन जबरदस्ती न खिला दे। अब तो उन्हे अपने ही बनाये क्षेत्रीय भोज्य पदार्थों से भी अरुचि होने लगी है। इसलिए “ डा0 मैकाले” की सलाह के अनुसार इंग्लैण्ड का डिब्बा बंद अँग्रेजी भोजन ही लेते हैं। दक्षिण , पूर्व, से होते हुए इस हिंदीरिया का भय पश्चिम और कुछ हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों को भी होने लगा है, लेकिन अभी उन उच्च वर्गों तक ही सीमित है जो बेचारे बचपन से ही और शायद कई पीढ़ी से डिब्बा बंद भोजन ही लेते आये हैं। एक / दो पीढ़ी से तो इनकी मातृभाषा भी अँग्रेजी हो चुकी है। यदि हम कहें कि हिंदी हमारी मातृ भाषा है और हमें उस पर गर्व है तो आज लाखों भारतीय ये कहने वाले मिल जायेंगे कि अँग्रेजी हमारी मातृ भाषा है और हमें भी उस पर गर्व है। इनकी सँख्या बढ़ती ही जाएगी इसलिए स्थिति भयावह और भारत के लिए चिंतनीय है ?
मैं बार-बार इस बात को कहता और लिखता हूँ कि आजादी के बाद सत्ता के चेहरे तो बदल गये पर चरित्र नहीं बदले। अंग्रेजों ने उन्हें पूरी तरह अपने रंग में रंगकर सत्ता सौंपी थी, जिसका खामियाजा हिंदी आज तक भुगत रही है। गाँधीजी, पुरषोत्तमदासजी टंडन, वल्लभभाई पटेल, डा.राजेन्द्र प्रसाद, मराठी भाषी राष्ट्रीय नेता यहाँ तक कि बंग्ला भाषी रवीन्द्रनाथ ठाकुरजी भी हिंदी के पक्षधर थे। हिंदी समर्थक राष्ट्रीय नेताओं की संख्या भी बहुत ज्यादा थी पर वे बड़े सीधे सच्चे व साफ दिल के थे। अंग्रेज और उनके भारतीय भक्तों की धूर्ततापूर्ण चालें समझ नहीं पाए। एकजुट होकर अंग्रेजी का विरोध नहीं किए, परिणाम यह हुआ कि 1 प्रतिशत काले अँग्रेज 99 प्रतिशत पर हावी हो गए।
आजादी के बाद ही पूरा भारत हिंदी को काम काज की भाषा और राष्ट्रभाषा का दर्जा देने सहमत हो गया था पर कुछ दक्षिण के नेताओं और उत्तर भारत के अंग्रेजी परस्तों ने मिलकर 15 वर्षों तक अर्थात 1962 तक अँग्रेजी लागू रहने और बाद में इसकी समीक्षा करने की बात मनवा ली। अर्थात् फिर एक बार अल्पमत बहुमत पर हावी हो गया, जिसका परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। और अब तो यह हाल है कि गली नुक्कड़ में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए। भारत सरकार की कृपा से या शायद इंग्लैण्ड /अमेरिका के दबाव से ऐसे हजारों स्कूल भी खुल गये हैं जहाँ हिंदी बोलने पर सख्त सज़ा दी जाती है। हमारी औकात नहीं कि विरोध कर सकें।
आज भारत की संस्कृति, भाषा, रहन सहन, दिनचर्या सब में पूरी अँग्रेजियत है, अँग्रेजों की छाप है। गौ माता उपेक्षित है, काटी जा रही है और कुत्ते घर की शोभा बढ़ा रहे हैं । 20 - 25 अँग्रेजी के शब्द उसे भी सिखा देते हैं। कितने ही महानुभाव कुत्ते का जन्म दिन मनाते हैं , केक काटकर !! आज का भारत, इंग्लैण्ड /अमेरिका का किसी उपनिवेश सा लगता है, पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र नहीं !!! भय इस बात का भी है कि कहीं भारत वेस्ट इंडीज जैसा न हो जाये।
अँग्रेजी दवाओं की तरह अँग्रेजी भाषा का भी साइड इफेक्ट है, जहरीला और खतरनाक, जो धीरे- धीरे हमारा अस्तित्व, हमारी पहचान ही खत्म कर देता है। मैकाले यह जान गया था। उस जैसी दूरदर्शिता हमारे नेताओं में न आजादी के समय थी न आज है। अब सभी भारतीय भाषा और हिंदी प्रेमियों को भी खुलकर आना चाहिए, हिंदी के समर्थन में, पूरी ताकत के साथ। 1947 के नेताओं की तरह दंत हीन और मेरुदंड विहीन न बने वर्ना हमारी बात कोई नहीं सुनेगा, कोई नहीं मानेगा। कोई भी हमें छेड़ेगा और काट भी खाएगा। “ सीधे वृक्ष और व्यक्ति पहले काटे जाते हैं।"
“ हम उठेंगे तो तूफान खड़ा कर देंगे , मगर हमने उठने की ठानी नहीं है।”
कितना सटीक बैठता है यह वाक्य हम भारतीयों पर, विशेषकर हिंदी भाषी और हिंदी समर्थक नेताओं, नौकरशाहों और जनता पर।
नई सरकार हिंदी और भारतीय भाषाओं के हित में कुछ फैसले लेना तो चाहती है पर सशक्त विरोध से कदम खींच लेती है .......
1.. सरकार ने सोशल मीडिया पर हिंदी के ज़्यादा इस्तेमाल का सर्कुलर जारी किया था। जब विरोध हुआ तो आदेश वापस ले लिया गया।
2.. यूपीएससी में अँग्रेजी पर विवाद ..... सरकार अड़ी रही “ सी सैट ” को पूरी तरह खत्म नहीं किया और न ही अँग्रेजी से गलत - सलत या कहें मूर्खतापूर्ण हिंदी अनुवाद पर ही कोई विचार किया।
दोनों मामलों में अँग्रेजी परस्तों के दबाव के आगे सरकार आखिर झुक ही गई।
आचार्य चाणक्य का कथन है...... (सभी भारतवासी विशेषकर हिंदी प्रेमियों के लिए)
“ अगर कोई सर्प जहरीला नहीं है तब भी उसे जहरीला दिखना चाहिए , दंश भले ही न दो पर दंश दे सकने की क्षमता का दूसरों को एहसास करवाते रहना चाहिए।”
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया महिमाश्री,
इस आलेख को समय देने और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
छोटे भाई गिरिराज,
आलेख की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
बहुत ही बढ़िया आलेख .. हिंदी का प्रयोग जबतक नौकरियों में अनिवार्य नहीं किया जाता तबतक इसका क्रेज नहीं आएगा ..हार्दिक बधाई ..आपको सार्थक लेखन के लिए
अभी कुछ दिन पहले कुरूक्षेत्र विश्विधालय में हिन्दी संगोष्ठी हो रही थी, जिसमें रूस से आई प्रतिभागी ने हिन्दी में भाषण दिया और कहा कि हिन्दी में संस्कृति से जुडाव है यह एक परम्परा है। हिन्दी भाषा में समाज व संस्कृति सलग्ंन है।
आदरणीय , परिवार और समाज स्तर पर हम हिंदी और क्षेत्रीय बोली का निरंतर प्रयोग करते हैं पर प्रतिस्पर्धा और नौकरी की बात सोचकर बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में डालना हमारी मज़बूरी हो जाती है । बेचारे बच्चे विज्ञान गणित कला, कामर्स आदि अन्य विषय अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाए जाने के कारण मज़बूर हो जाते हैं कि अंग्रेज़ी भाषा को हिंदी से ज़्यादा महत्व देने के लिए । आज बच्चों की ये स्थिति है कि वे हिंदी में एक आवेदन , एक पत्र भी नहीं लिख सकते। बड़े होकर हमारे ही बच्चे अंग्रेजी समर्थक हो जाते हैं। हिंदी की सेवा हम और आप लेख कविता गीत गज़ल के रूप में कर ही रहे हैं पर पीढ़ी दर पीढ़ी साहित्यकारों की संख्या और पाठकों की संख्या कम होती जा रही है जबकि आबादी बढ़ रही है।.......
आपकी बात सही है। यह दौर हमें संस्कृति से दूर कर रहा है।
आदरणीय गोपाल भाईजी,
आपका कथन सही है कि जब तक सत्ताधारी दल , शासन , प्रशासन हिंदी के हित में कोई ठोस निर्णय न लें तब तक हिंदी का उद्धार नहीं हो सकता। उच्चतम न्यायालय के विरोध के बाद भी हाल ही में सरकार ने कुछ निर्णय लिए और तुरंत ही कानूनी जामा भी पहना दिया। इससे लगता है कि सरकार में दम तो है बस हिंदी के प्रति उसकी सोच को सकारात्मक करना होगा। इसके लिए ठेठ हिदीं भाषी प्रदेश , बिहार , उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश , राजस्थान , छत्तीसगढ़ , झारखंड , उत्तराखंड, ( महाराष्ट्र , गुजरात ) आदि के सांसद / मंत्री सक्षम हैं और ये अंग्रेजी परस्त भी नहीं है। बस एक अच्छी शुरुवात की देर है फिर तो हिंदी अपनी मंज़िल पा ही लेगी।
शपथ ग्रहण समारोह में तमिलों के सख्त विरोध के बाद भी श्रीलंका के राष्ट्र प्रमुख को आमंत्रित किया गया, इससे यह तो प्रतीत होता है कि कोई बात तर्कपूर्वक समझाई जाय तो सरकार उसे अमल में लाने के लिए वोट बैंक की चिंता भी नहीं करेगी। शुरुवात छात्रों और उपरोक्त प्रदेशों के सांसदों / विधायकों को मिलकर करनी होगी। सीढ़ियों से उतरना सरल है पर मंज़िल पाने के लिए लम्बी चढ़ाई चढ़नी हो तो कठिनाई होगी ही ।
हिंदी प्रेमियों की निराशा को आशा में और आशा को विश्वास में बदलना ही होगा।
रचना को अमूल्य समय देने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय सूबे सिंहजी,
परिवार और समाज स्तर पर हम हिंदी और क्षेत्रीय बोली का निरंतर प्रयोग करते हैं पर प्रतिस्पर्धा और नौकरी की बात सोचकर बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में डालना हमारी मज़बूरी हो जाती है । बेचारे बच्चे विज्ञान गणित कला, कामर्स आदि अन्य विषय अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाए जाने के कारण मज़बूर हो जाते हैं कि अंग्रेज़ी भाषा को हिंदी से ज़्यादा महत्व देने के लिए । आज बच्चों की ये स्थिति है कि वे हिंदी में एक आवेदन , एक पत्र भी नहीं लिख सकते। बड़े होकर हमारे ही बच्चे अंग्रेजी समर्थक हो जाते हैं। हिंदी की सेवा हम और आप लेख कविता गीत गज़ल के रूप में कर ही रहे हैं पर पीढ़ी दर पीढ़ी साहित्यकारों की संख्या और पाठकों की संख्या कम होती जा रही है जबकि आबादी बढ़ रही है।
इस लेख को समय देने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय , बड़े भाई , बढ़िया आलेख के लिए बधाई |
अखिलेश जी
जब मै हाई -स्कूल में था तब ''अनिवार्य संस्कृत'' पढ़ाई जाती थी i उस अनिवार्यता का फल है कि थोडा बहुत संस्कृत मै समझ सकता हूँ i संस्कृत को अनिवार्य उस समय की शिक्षा नीति ने बनाया होगा i सीधी बात है कि जब तक शासन इस भाष को तरजीह नहीं देगा i हम हिन्दी प्रेमी बस अरण्य रोदन ही करते रहेंगे i शासन की ताकत अभी आपने देख ही ली है दक्षिण भारतीयों के उग्र विरोध के कारण मोदी को अपना फरमान 24 घंटे के अन्दर वापस लेना पड़ा i शासको की अपनी वोट और तुष्टीकरण की मजबूरी है i पर राह तो उसे ही निकालनी है i हम केवल परचम फहराकर कुछ नहीं कर सकते i
मुगलों ने इंसाफ की भाषा उर्दू तय की i शासन की यह पहल इतनी कामयाब हुयी कि आज तक माल दीवानी, मुकदमा, सब उर्दू में चल रहा है i उच्च न्यायालयों में अंगरेजी का बोलबाला है i हिन्दी के पी-यच डी को कोई विद्वान मानता ही नहीं अगर उसके पास कोई अहम् पद नहीं है i किसी समय फ़ारसी की यही हालत थी और तब एक मुहावरा जन्मा था - पढ़े फ़ारसी बेचें तेल i हिन्दी प्रेमी तो अलख जगाये हुए है पर अनुकूल पवन की तलाश है i तुष्टिवादी राजनीति से आशा करना
व्यर्थ है i अस्तु कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु ----
आदरणीय, आपके विचार बहुत उद्वेलित करते हैं। लेकिन मेरे विचार से हम साहित्यकारों का यह कर्त्व्य बनता है कि हम हिन्दी की विशिष्टता का बखान करें और खुले मन से हिन्दी के शब्दों का प्रयोग करते रहें तो धीरे धीरे समाज भी प्रयोग करने लगेगा।
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