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नफ़रतों का जवाब मैं रक्खूं

नफ़रतों का जवाब मैं रक्खूं

ख़ार तू रख गुलाब मैं रक्खूं

 

बीत जाये इसी में उम्र तमाम

ज़ख्मों का गर हिसाब मैं रक्खूं

 

मै ग़मों की रवाँ है रग रग में

होश कैसे जनाब मैं रक्खूं

 

सामने तेरे बेहिजाब हुआ

क्या बुतों से हिजाब मैं रक्खूं

 

दर्दे-उल्फ़त पलेगा क्या मुझसे

क्यूं कफ़स में उक़ाब मैं रक्खूं

 

शमा सी वो पिघलती है हर शब

कब सिरहाने किताब मैं रक्खूं

 

पेट में भूख का शरारा  है

पीठ पर आफ़्ताब मैं रक्खूं

 

आपने तो बसा लिया है घर

और ख़ाना ख़राब मैं रक्खूं

 

एक ‘खुरशीद’ आसमां पर है

इक सुख़न में ख़िताब मैं रक्खूं

मौलिक तथा अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by harivallabh sharma on September 17, 2014 at 6:40pm

वाह बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुयी है...

मय ग़मों की रवाँ है रग रग में

होश कैसे जनाब मैं रक्खूं....क्या बात है...बधाई आपको 

 

Comment by khursheed khairadi on September 16, 2014 at 10:05am

आदरणीय भंडारी सा. ,श्रीवास्तव सा. ,चौहान सा. विजय शंकर सा. आप सभी का तहेदिल से आभारी हूं की आपने ग़ज़ल को तवज्जो दी |मय गमों की रवां है रग रग में ,होश कैसे ज़नाब मैं रखूं | मेरा मंतव्य यहाँ ,मय यानि मदिरा से है कि रग रग में दुख की मदिरा प्रवाहित है ऐसे में शायर का कदम दर कदर लड़खड़ाना लाज़मी है | फिर भी कथन में कोई भाषागत त्रुटि हो तो मैं आप सभी विद्जनों से इस्लाह का प्रार्थी हूं |आपकी इस्लाह से क़लाम और निखर जायेगा | सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 15, 2014 at 6:42pm

वाह वाह आदरणीय

क्या गजल कही है ? भंडारी जी की शंका  मुझे सही लगती है i

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 15, 2014 at 3:01pm
ग़ज़ल अच्छी है , आदरणीय खुर्शीद खैरादी जी , बधाई .

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 15, 2014 at 12:45pm

आ. खुर्शीद भाई , पूरी ग़ज़ल बेहतरीन कही है , दिली दाद स्वीकार करें |

बस मिसरा क्या कहना चाह रहा है  समझ नही पाया , या टंकण त्रुटि है --  मै ग़मों की रवाँ है रग रग में - - ज़रा देख लीजिएगा |

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