२१२२ २१२२ २1२२
जब भी सागर बनने इक दरिया चला है
पत्थरों को राह के हरदम खला है
जूझते दरिया पे जो कसते थे ताने
आज जलवे देख हाथों को मला है
यूं नहीं बढ़ता है कोई जिन्दगी में
बढ़ने वाला रात दिन हरदम चला है
अपने ही हाथों से रोका था हवा को
तब कहीं ये दीप आंधी में जला है
दोस्तों जिस को गले हमने लगाया
बस रहा अफ़सोस उसने ही छला है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
यूं नहीं बढ़ता है कोई जिन्दगी में
बढ़ने वाला रात दिन हरदम चला है.....वाह बेहद उम्दा ग़ज़ल कही है ...दाद कुबूल करे
आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्र जी,
"यूं नहीं बढ़ता है कोई जिन्दगी में
बढ़ने वाला रात दिन हरदम चला है"
.. प्रभावी ग़ज़ल के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
आदरणीय विजय जी ..बस आपका स्नेह यूं ही मिलता रहे सादर
आदरणीय श्याम नारायण जी ..हौसला आफजाई के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आदरणीय नरेन्द्र जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..आपके मशविरे पर अमल करते हुए ग़ज़ल में संसोधान केर लूँगा ..आपको हार्दिक धन्यवाद के साथ सादर
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..आपके मशविरे पर अमल करते हुए ग़ज़ल में संसोधान केर लूँगा ..आपको हार्दिक धन्यवाद के साथ सादर
अपने ही हाथों से रोका था हवा को
तब कहीं ये दीप आंधी में जला है.........क्या बात कही है. आदरणीय डा. आशुतोष जी दिली बधाई आपको
अपने ही हाथों से रोका था हवा को
तब कहीं ये दीप आंधी में जला है
आदरणीय ,आशुतोष सा. अच्छी ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमाएं
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुयी है आदरणीय...खास टूर पर ये शेर बहुत लाजबाब...
अपने ही हाथों से रोका था हवा को
तब कहीं ये दीप आंधी में जला है
दोस्तों जिस को गले हमने लगाया
बस रहा अफ़सोस उसने ही छला है .....बहुत बधाई आपको.
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