है अपनी नस्ल पे भी फख्र अपने गम की तरह से
दिलों में घर किये हुए किसी वहम की तरह से
बहारें छोड़ती गईं निशान कदमों के मगर
उजाड़ मंदिरों के भव्य गोपुरम की तरह से
खरा है नाम पर नसीब इसका खोटा है बड़ा
ये मेरा देश बन के रह गया हरम की तरह से
बचे हैं गाँठ-गाँठ सिर्फ गाँठ भर ही रिश्ते सब
निभाये जा रहे हैं बस किसी कसम की तरह से
सजा गुनाह की उसे अगर दें, कैसे दें बता ?
हमारी रूह में बसा है वो धरम की तरह से
मेरी कराह मेरे लाख रोके रुक नहीं सकी
नहीं था उसपे जोर कुछ मेरे जनम की तरह से
सुलभ
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय योगराज जी!
बहुत-बहुत आभार।
मैं दरअसल हिन्दी में ही सोचता हूं और हिन्दी में ही लिखता हूं, चाहे वह कोई भी विधिा हो। ‘‘जात’’ का मतलब अगर वही है जो ‘‘जाति’’ का है तो कोई दिक्कत नहीं है। कृपया ‘‘जा़त’’ के मायने स्पष्ट करते हुए मार्गदर्शन कीजिए।
//बहारें छोड़ती गईं निशान कदमों के मगर
उजाड़ मंदिरों के भव्य गोपुरम की तरह से//
बहुत खूब आ० सुलभ अग्निहोत्री जी। एक छोटी सी गुज़ारिश, मतले के ऊला में "नस्ल" को "ज़ात" करना करना क्या बेहतर न होगा ?
बहुत-बहुत आभार rajesh kumari जी !
बहुत-बहुत आभार Pawan Kumar जी !
बहुत-बहुत आभार विजय मिश्र जी !
बचे हैं गाँठ-गाँठ सिर्फ गाँठ भर ही रिश्ते सब
निभाये जा रहे हैं बस किसी कसम की तरह से----बहुत शानदार
बहुत खूब प्रस्तुति ,बधाई आपको
सुन्दर रचना, बधाई सादर!
बहुत-बहुत आभार आदरणीय Santlal Karun जी !
आदरणीय अग्निहोत्री जी,
ग़ज़ब की ग़ज़ल हुई है, अति सुन्दर --
"बहारें छोड़ती गईं निशान कदमों के मगर
उजाड़ मंदिरों के भव्य गोपुरम की तरह से"
...हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
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