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है अपनी नस्ल पे भी फख्र अपने गम की तरह से .. - सुलभ अग्निहोत्री

है अपनी नस्ल पे भी फख्र अपने गम की तरह से
दिलों में घर किये हुए किसी वहम की तरह से

बहारें छोड़ती गईं निशान कदमों के मगर
उजाड़ मंदिरों के भव्य गोपुरम की तरह से

खरा है नाम पर नसीब इसका खोटा है बड़ा
ये मेरा देश बन के रह गया हरम की तरह से

बचे हैं गाँठ-गाँठ सिर्फ गाँठ भर ही रिश्ते सब
निभाये जा रहे हैं बस किसी कसम की तरह से

सजा गुनाह की उसे अगर दें, कैसे दें बता ?
हमारी रूह में बसा है वो धरम की तरह से

मेरी कराह मेरे लाख रोके रुक नहीं सकी
नहीं था उसपे जोर कुछ मेरे जनम की तरह से

सुलभ

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Sulabh Agnihotri on November 23, 2014 at 11:05am

आदरणीय योगराज जी!
बहुत-बहुत आभार।
मैं दरअसल हिन्दी में ही सोचता हूं और हिन्दी में ही लिखता हूं, चाहे वह कोई भी विधिा हो। ‘‘जात’’ का मतलब अगर वही है जो ‘‘जाति’’ का है तो कोई दिक्कत नहीं है। कृपया ‘‘जा़त’’ के मायने स्पष्ट करते हुए मार्गदर्शन कीजिए।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 3, 2014 at 3:53pm

//बहारें छोड़ती गईं निशान कदमों के मगर
उजाड़ मंदिरों के भव्य गोपुरम की तरह से//

बहुत खूब आ० सुलभ अग्निहोत्री जी। एक छोटी सी गुज़ारिश, मतले के ऊला में "नस्ल" को "ज़ात" करना करना क्या बेहतर न होगा ?

Comment by Sulabh Agnihotri on October 2, 2014 at 7:41pm

बहुत-बहुत आभार rajesh kumari जी !

Comment by Sulabh Agnihotri on October 2, 2014 at 7:40pm

बहुत-बहुत आभार Pawan Kumar जी !

Comment by Sulabh Agnihotri on October 2, 2014 at 7:40pm

बहुत-बहुत आभार विजय मिश्र  जी !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 26, 2014 at 7:34pm

बचे हैं गाँठ-गाँठ सिर्फ गाँठ भर ही रिश्ते सब
निभाये जा रहे हैं बस किसी कसम की तरह से----बहुत शानदार 

बहुत खूब प्रस्तुति ,बधाई आपको 

Comment by Pawan Kumar on September 26, 2014 at 5:56pm

सुन्दर रचना, बधाई सादर!

Comment by विजय मिश्र on September 26, 2014 at 5:38pm
"मेरी कराह मेरे लाख रोके रुक नहीं सकी
नहीं था उसपे जोर कुछ मेरे जनम की तरह से |- सुलभजी , बहुत सुंदर भाव उभरे हैं | अनेक बधाई |
Comment by Sulabh Agnihotri on September 22, 2014 at 5:24pm

बहुत-बहुत आभार आदरणीय Santlal Karun  जी !

Comment by Santlal Karun on September 21, 2014 at 9:58pm

आदरणीय अग्निहोत्री जी,

ग़ज़ब की ग़ज़ल हुई है, अति सुन्दर --

"बहारें छोड़ती गईं निशान कदमों के मगर
उजाड़ मंदिरों के भव्य गोपुरम की तरह से"

...हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

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