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ग़ज़ल - तीर के अपने नियम हैं जिस्म के अपने नियम ( गिरिराज भंडारी )

 तीर के अपने नियम  हैं जिस्म के अपने नियम

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2122       2122        2122     212

तीर के अपने नियम  हैं जिस्म के अपने नियम

एक  का जो फर्ज़  ठहरा  दूसरे  का  है सितम

 

कुछ हक़ीक़त आपकी भी सख़्त थी पत्थर  नुमा

और कुछ  मज़बूतियों के थे हमे भी  कुछ भरम

 

मंजिले  मक़्सूद  है, खालिश  मुहब्बत  इसलिए

बारहा  लेते   रहेंगे  मर के  सारे  फिर  जनम

 

किस क़दर अपनी मुहब्बत मुश्किलों मे फँस गई 

इस तरफ खींचे मुहब्बत उस तरफ  खींचे  धरम

 

तुम  मुहब्बत को  मुहब्बत की नज़र से देखना

तब मुहब्बत को समझ पाओगी,ओ संगे  सनम

 

गर वफ़ा  की बात दिल में है नहीं, क्या फ़ाइदा

लाख वादे तुम करो , खाते रहो जितनी  क़सम

 

अश्क़  का  दर्या  बहा जब लोग  देखे तो मगर

संग दिल लोगों की आँखें हो न पायीं थोड़ी नम

 *******************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

Views: 849

Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 25, 2014 at 5:31pm

सादर आभार आदरणीय,मेरा संशय भी दूर हुआ  मक्सूद शब्द को लेकर मार्गदर्शन भी हुआ ,पुनः बधाई आपको इस शानदार ग़ज़ल के लिए  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2014 at 5:27pm

आदरानीया राजेश जी , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका बहुत आभार |

मक़्सूद  --- सही शब्द है , और दूसरा शब्द खालिस सही है ,  खालिश--  टंकण त्रुटि हो गयी है , सुधार लूंगा | आपका आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2014 at 5:23pm

आदरणीया सविता जी , आपका आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2014 at 5:23pm

आ. दया राम भाई , सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 25, 2014 at 4:49pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है आ० गिरिराज जी ,शानदार मतला ,सभी शेर कमाल के हैं ,बस यहाँ थोडा संशय है --मंजिले  मक़्सूद  है, मक्सूद है या मक़सूद  खालिश  मुहब्बत  इसलिए----खालिश है या ख़ालिस कृपया मार्ग दर्शन करें क्यूंकि मैं भी सिर्फ संशय में हूँ ..

आपकी इस ग़ज़ल के लिए ढेरों दाद प्रेषित हैं 

Comment by savitamishra on September 25, 2014 at 4:45pm

बहुत सुंदर ..सादर नमस्ते

Comment by Dayaram Methani on September 25, 2014 at 2:32pm

बहुत सुंदर गज़ल। बधाई।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2014 at 12:37pm

कुछ हक़ीक़त आपकी भी सख़्त थी पत्थर  नुमा

और कुछ  मज़बूतियों के थे हमे भी  कुछ भरम

आ. पाठकों से अनुरोध है कि  इस शे र को कृपया ऐसे पढ़ने की कृपा करें --

कुछ हक़ीक़त आपकी भी सख़्त थी पत्थर  नुमा

और कुछ  मज़बूतियों के  हम भी  पाले थे  भरम

                                                          


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2014 at 12:21pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , क्षमा याचना कर के आप मुझे शर्मिंदा न करें , जो गलत है वो गलत है , कुछ का उपवोग २ बात गलत ही है , आपका आभारी हूँ , ध्यान दिलाने के लिए | मैं  ज़रूर  सुधार कर लूंगा | आपका पुनह आभार |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 25, 2014 at 11:59am

मित्र

आपसे जैसी उम्मीद होती है बिलकुल वैसी ही है i 'और कुछ  मज़बूतियों के थे हमे भी  कुछ भरम' इसमें कुछ का दो बार प्रयोग  कुछ खटकता है i  कुछ करिए मित्र i  क्षमा याचना सहित i  सादर i

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