फूल हमेशा बगिया में ही, प्यारे लगते।
नीले अंबर में ज्यों चाँद-सितारे लगते।
बिन फूलों के फुलवारी है एक बाँझ सी,
भरी गोद में माँ के राजदुलारे लगते।
हर आँगन में हरा-भरा यदि गुलशन होता,
महके-महके, गलियाँ औ’ चौबारे लगते।
दिन बिखराता रंग, रैन ले आती खुशबू,
ओस कणों के संग सुखद भिनसारे लगते।
फूल, तितलियाँ, भँवरे, झूले, नन्हें बालक,
मन-भावन ये सारे, नूर-नज़ारे लगते।
मिल बैठें, बतियाएँ इनसे, जी चाहे जब,
स्वागत में ये पल-पल बाँह पसारे लगते।
घर से बेघर कभी ‘कल्पना’ करें न इनको,
तनहाई में ये ही खास हमारे लगते।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
प्रिय राजेश कुमारी जी, गजल की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद। यह मात्रिक बहर ही है, 222...इसलिए नहीं लिखी।
आदरणीय कल्पना बहन इस सुंदर गजल के लिए हार्दिक बधाई ।
बहुत बधाई कल्पना जी ,"तनहाई में ये ही खास हमारे लगते।" तन्हाई का अपनापन ही तो अपनत्व की अनंतता है.भीड़ और कोलाहल में कुछ पता ही नहीं चलता.
बहुत ही मनोहारी ग़ज़ल हुयी है आदरणीया...वाकई बिना फूलों के क्यारी की क्या शोभा...पेड़ पोधों से तादात्य्म स्थापित कराते अशआर लाजबाब ..
दिन बिखराता रंग, रैन ले आती खुशबू,
ओस कणों के संग सुखद भिनसारे लगते।
फूल, तितलियाँ, भँवरे, झूले, नन्हें बालक,
मन-भावन ये सारे, नूर-नज़ारे लगते।....अत्यंत बधाई आपको आदरणीया कल्पना रामानी जी.
बहुत सुंदर गजल... हार्दिक बधाई
बहुत सुंदर गजल कही आदरणीया कल्पना जी. सदा की तरह सादगी से परिपूर्ण भाव, बहुत-२ बधाई आपको
" सुंदर गजल के लिए हार्दिक बधाई " |
सादर.............
आदरणीया कल्पना जी ...इस बेहतरीन ग़ज़ल का हर शेर शानदार है
बिन फूलों के फुलवारी है एक बाँझ सी,
भरी गोद में माँ के राजदुलारे लगते।
हर आँगन में हरा-भरा यदि गुलशन होता,
महके-महके, गलियाँ औ’ चौबारे लगते।,,,इन दो शेरो पर बिशेष रूप से बधाई स्वीकार करें सादर
गज़ल अच्छी लगी, हार्दिक बधाई
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