जैऽऽ…….दुर्गामइया की जैऽऽऽ……
नाव के एकबारगी हिचकोले खाने के साथ ही दुर्गा एवं संलग्न प्रतिमाओं का विसर्जन हो गया. माता, माता के शृंगार, शेर के अयाल, महिष के सींग, असुर की फैली भुजायें, सबकुछ एक साथ जल में समाने लगे.
मूर्ति के साथ साथ मनुआ भी पानी में कूदा. उसे न तो दानव का कोई डर था, न उसे माता के आशीर्वाद चाहिये थे.
“अबे.. ये मेरी वाली है..”, कहता हुआ वो डूबती हुई प्रतिमाओं की ओर तैर चला.
उसे उनके पास बाकियों से पहले पहुँचना था, ताकि आने वाली ठंड में अम्मा-बाबूजी को तापने के लिये लकड़ी के पटरों और खपच्चियों का इंतजाम हो सके.
(मौलिक और अप्रकाशित)
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Comment
कथा पर समय देने के लिये घन्यवाद आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी.
जरूरतें कब कहाँ कुछ सोचने देती है, और फिर माता-पिता तो सर्वोपरि है. बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय शुभ्रांशु जी
लघुकथा तो ठीक ठाक ही है मगर शीर्षक (जोकि लघुकथा का अभिन्न अंग होता है) बेहद इर्रेलेवेंट है भाई शुभ्रांशु जी।
बहुत सुन्दर और सटीक लघुकथा शुभ्रांशु जी | बधाई स्वीकारें..
शुभ्रांशु जी आपने जो लिखा है वो नजारा मैं गणपति विसर्जन के दौरान मुंबई में देख कर आ रही हूँ कुछ गरीब बच्चे लहरों की परवाह किये बगैर कुछ सामान झोली में इकठ्ठा कर रहे थे आपकी कहानी पढ़ते ही वो ग्रंथि सुलझ गई ,सच में निर्धनता क्या नहीं करवाती ,बहुत मार्मिक भाव .बहुत- बहुत बधाई इस लघु कथा के लिए.
बहुत अच्छी लघुकथा , बधाई.. |
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