इक दिया चाहिए रोशनी के लिए
बालता हूं जिगर मैं इसी के लिए
रोटी कपड़ा मकाँ की तरह साथियों
रौशनी लाज़मी हो सभी के लिए
वो भटकता हुआ इक मुसाफ़िर है ख़ुद
चुन रहे हो जिसे रहबरी के लिए
हौसला जिंदगी को ग़ज़ल ने दिया
मैं तो तैयार था ख़ुदकुशी के लिए
खैरियत से रहे सब हबीबो-अदू
मैं दुआ माँगता हूं सभी के लिए
मैं ग़मों को गले से लगाता रहा
लोग रोते रहे जब ख़ुशी के लिए
दोस्ती आशिकी बंदगी शायरी
अब जरुरी नहीं आदमी के लिए
दीप जलते रहें जश्न मनता रहे
बदगुमानी रहे कुछ घड़ी के लिए
गाँव में तीरगी है मुसल्सल मगर
फिर चरागाँ हुआ शहर ही के लिए
और ‘खुरशीद’ का सिर कलम हो गया
है यही इक सजा सरकशी के लिए
Comment
आदरणीय विजय निकोरे साहब ,आदरणीया महिमा श्री जी ,आदरणीय जितेन्दर् जी ,सोमेश जी ,श्यामनारायण जी और परम आदरणीय गोपालनारायण जी ,हौसलाअफजाई के लिए शुक्रगुजार हूं |स्नेह बनाये रखियेगा |सादर
खूबसूरत गज़ल लिखी है। बधाई।
इक दिया चाहिए रोशनी के लिए
बालता हूं जिगर मैं इसी के लिए.... लाजवाब मतला ...हर शेर उम्दा ..हार्दिक बधाई प्रेषित है
बेहतरीन गजल कही आपने, आदरणीय खुर्शीद साहब. दिली बधाई कुबूल करें
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हौसला जिंदगी को ग़ज़ल ने दिया
मैं तो तैयार था ख़ुदकुशी के लिए
दीप जलते रहें जश्न मनता रहे
बदगुमानी रहे कुछ घड़ी के लिए
और ‘खुरशीद’ का सिर कलम हो गया
है यही इक सजा सरकशी के लिए- बेहतरीन खुर्शीद भाई i दीपावली सी जग गयी मानो i बधाई हो i
बहुत सुन्दर गजल ... आपका बधाई ... |
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