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नफरतों का सिलसिला चारों तरफ है

1.

नफरतों का सिलसिला चारों तरफ है

फिर चुनावों की हवा चारों तरफ है

 

दौर फिर हैवानियत का आ गया लो

आदमीयत गुमशुदा चारों तरफ है

 

है मुकर्रर दिन क़यामत का सुना था

हाँ इसी की इब्तदा  चारों तरफ है

 

छिड़ गई है जंग फिर से भाइयों में

इक महाभारत नया चारों तरफ है

 

दानवों ने शोर कितना फिर मचाया

मौनधारी देवता चारों तरफ है

 

ज़िंदगी से भागकर जायें कहाँ हम

मौत से बढ़कर कज़ा चारों तरफ है

 

साथ सच के चलना हो तो मैं रुका हूं

वरना जाओ रास्ता चारों तरफ है

 

साथ दो ‘खुरशीद’का सब दीप बनकर

तीरगी की इक रिदा चारों तरफ है 

२.

सियासत में अगर उलझा नहीं होता

तो पेचीदा कोई मुद्दा नहीं होता

 

अगर दिल्ली न रोड़ा राह का बनती

तरक्की का रुका रस्ता नहीं होता

 

ज़रा सी बात थी कब की सुलझ जाती

हमारे बीच में नेता नहीं होता

 

हमारे दौर का कमज़ोर पहलू है

चमकता है वो जो सोना नहीं होता

 

न जाने रागदरबारी थमेगा कब

हमारे दर्द का चर्चा नहीं होता

 

महीना बीतते ही बीतते अक्सर

कनस्तर खोलो तो आटा नहीं होता

 

सियासत रोटियाँ ना सेंकती अपनी

तो कोई आदमी भूखा नहीं होता

 

तुम्हारे वोट की बोली लगे जब जब

बतादो आदमी सस्ता नहीं होता

 

अगर ‘खुरशीद’ का ही साथ देते सब

सवेरा आज यूं काला  नहीं होता

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by khursheed khairadi on November 10, 2014 at 2:09pm

आदरणीय गोपालनारायण साहब ,आपके स्नेह का सदैव आभारी रहूँगा |सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 15, 2014 at 5:59pm

आदरणीय खुर्शीद जी

मेरे मन की बात आदरणीया राजेश कुमारी जी ने  पहले ही कह दी है i सादर i

Comment by khursheed khairadi on October 15, 2014 at 9:24am

आदरणीय सन्देश नायक सा.,आदरणीय जितेंदर जी ,आदरणीया राजेश कुमारी जी ,आदरणीय विजय शंकर जी ,ग़ज़ल को आप सभी विद्जनों का आशीर्वाद मिला ,इसके लिए तहेदिल से शुक्रिया |सादर आभार 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 14, 2014 at 11:45pm

गजब! बहुत ही बेहतरीन गजलें कही आपने, आदरणीय खुर्शीद साहब. दिली बधाइयाँ आपको

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 14, 2014 at 4:14pm
आदमी , आदमी , आदमी ही आदमी
चारों तरफ बस आदमी ही आदमी ,
बस दिखती नहीं, कहीं भी आदमियत ,
हर एक तलाश रहा है बस आदमियत ॥
आपकी ग़ज़ल पढ़ी , ये लाइनें अपने आप आ गयीं जुबान पे , दोनों ग़ज़लें बहुत अच्छी हैं . बधाई आदरणीय खुर्शीद खैरादी जी , सादर .

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Comment by rajesh kumari on October 14, 2014 at 11:05am

ज़िंदगी से भागकर जायें कहाँ हम

मौत से बढ़कर कज़ा चारों तरफ है----वाह्ह्ह्ह सही कहा 

 

साथ सच के चलना हो तो मैं रुका हूं

वरना जाओ रास्ता चारों तरफ है-----उम्दा शेर 

महीना बीतते ही बीतते अक्सर

कनस्तर खोलो तो आटा नहीं होता-----सच का आईना है शेर 

 

सियासत रोटियाँ ना सेंकती अपनी

तो कोई आदमी भूखा नहीं होता-----लाजबाब 

आ० खुर्शीद जी ,इन दोनों ग़ज़लों की जितनी तारीफ की जाय वो कम ही होगी ,तहे दिल से दाद प्रेषित है |

 

 

Comment by संदेश नायक 'स्वर्ण' on October 14, 2014 at 9:57am

आदरणीय खुर्शीद जी, क्या खूब लिखा है...
''साथ सच के चलना हो तो मैं रुका हूं
वरना जाओ रास्ता चारों तरफ है'' । बहुत बहुत बधाई हो । दोनों ही रचनाएँ काबिल-ए-तारीफ़ हैं | अनुभव की आंच पर जब कोई रचना पकती है, तो उसका ज़ायका ही कुछ और होता है |
''ज़रा सी बात थी कब की सुलझ जाती
हमारे बीच में नेता नहीं होता''। बहुत खूब| दाद कुबूलें|

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