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मैं जीवन रंगोली-रंगोली सजा लूँ (डॉ० प्राची)

तुम मुस्कुराहट के

दीपक जलाओ

मैं जीवन रंगोली-रंगोली सजा लूँ

....चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ

 

माटी बनूँ ! रूँध लो, गूँथ लो तुम

युति चाक मढ़ दो, नवल रूप दो तुम

स्वर्णिम अगन से

जले प्राण बाती-

मैं स्वप्निल सितारे लिये जगमगा लूँ

....चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ

 

ओढूँ विभा सप्तरंगी तुम्हारी

छू लूँ चपलता मलंगी तुम्हारी

सुगंधि तुम्हारी

महक रूह की हो-

यूँ कतरे-कतरे में तुमको बसा लूँ

....चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ

 

तुम्हारी कदम-थाप की आवृति पर

हृदय साज की सुरमयी झंकृति पर

श्वासों की कण-कण

समर्पित नृति से-

 करूँ आरती सारी रस्में निभा लूँ

....चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ 

डॉ० प्राची 

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Meena Pathak on November 25, 2014 at 4:33pm

अत्यंत मनभावन रचना ..हृदयतल से बधाई आ० प्राची जी | सादर 

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on November 24, 2014 at 2:18pm

SUNDAR AUR MANBHAAWAN RACHNAA - DHERON BADHAAEE

Comment by Mohinder Kumar on November 3, 2014 at 1:06pm

सुन्दर मनोभावोँ से सजी रचना 

Comment by Neeraj Neer on October 28, 2014 at 9:22pm

वाह !चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ, बहुत ही सुंदर ... कितना सुंदर गीत है, आनंद आ गया ... 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 28, 2014 at 7:19pm

आदरणीय आदित्य कुमार जी 

मेरी लिखी रचना आप घर पर पढ़ कर सुनाते हैं..... ये जानना मुझे बहुत अन्तः संतोष दे रहा है

आपके अनुमोदन के लिए आभारी हूँ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 28, 2014 at 7:17pm

आदरणीय डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

प्रस्तुत गीत आपके पाठक को संतुष्ट कर सका ये जानना मेरे लिए तोषकारी है..

अभिव्यक्ति में यदि कुछ शब्द ऐसे हों जो पाठक अपनी कल्पना के विवध आयामों से ग्रहण करें तो शायद अभिव्यक्ति और खूबसूरत हो जाती है.... 'युति' शब्द एकत्व या संयोग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ....दीपक, बाती रंगोली में पशुओं को नहीं बांधा है आदरणीय :))

आपकी शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 28, 2014 at 7:11pm

गीत के शिल्प व भाव पर आपकी सराहना और अनुमोदन के लिए आभारी हूँ आ० सत्यनारायण सिंह जी 

Comment by Aditya Kumar on October 22, 2014 at 7:55pm

आपकी कवितायेँ।। कुछ कहते नहीं बनता ,  आप इतना अच्छा लिखती हैं मै पढ़ कर सुनाता हूँ घर पर।  सुबह दीपोत्सव 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 20, 2014 at 5:10pm

आदरणीया

आपकी कविता मे सदैव एक  उच्च स्तर देखने को मिलता है i  इस में  भी है i  'युति चाक मढ  दो'  पर पुनः विचार कर ले

युति पशु के बंधना को कहते है  i कुछ और अर्थ भी है i आप विदुषी है  i आप से क्या कहें i  सादर i


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 20, 2014 at 1:18pm

आ० डॉ. विजय शंकर जी 

वैविध्य ही खूबसूरत लगता भी है..अन्यथा समरसता ऊबाऊ होने लगती है.... और खूबसूरती के तो अनगिन आयाम हैं ..सहमत हूँ 

और सचमुच भाव अनमोल ही होते हैं.

आपने जिस भाव से इस को गीत स्वीकार किया है..... और उत्साह से अनुमोदित किया है उसके लिए मैं आपकी हृदय से आभारी हूँ 

सादर 

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