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खुद से यूँ आप वफ़ा कर चलिये
गाह सच को न छुपा कर चलिये
मैं इबादत में करूँ सजदे आप
दैर पर शीश नवा कर चलिये
दिल में भर जाये सड़न ही न कहीं
नफ़रतें दिल से हटा कर चलिये
चलिये महका के ज़माने भर को
प्यार का फूल खिला कर चलिये
कीजिये अम्न की कोशिश यों भी
हक़ में इंसाँ के दुआ कर चलिये
क्यूँ रहे हुस्न ही पर्दे में जनाब
आप भी नज़रें झुका कर चलिये
अब तलक ज़ख़्म कहीं बाकी है
बेवजह दिल न दुखा कर चलिये
बुझ रहा है तो इसे बुझने दें
यूँ शरर को न हवा कर चलिये
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत सुन्दर , बधाई आदरणीय शिज्जु शकूर जी।
वाह वाह क्या बात भाई जी
सुन्दर गज़ल .... सादर बधाई..... |
सारे के सारे अशआर बहुत खूब कहे है आदरणीय शिज्जू जी. इस बेमिसाल गजल पर आपको दिल से बधाई
क्यों रहे हुस्न पर्दे में जनाब - - ये शे'र बेहद पसंद आया पर समस्त गज़ल ही बेहद दिल-अजीज लगी
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