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मुझे ख़त भेज़ता है वो ,कभी मेरा हुआ था जो
गया था छोड़कर मुझको ,मेरा बनकर ख़ुदा था जो
सितारों की कसम उस चाँद को भूला नहीं अब तक
मेरी तन्हा भरी उस रात में सँग सँग ज़गा था जो
परेशाँ तो नहीं होगा,अकेला तो नहीं होगा
मुझे है फिक्र क्यों उसकी, नहीं मेरा हुआ था जो
कभी दिन के उज़ाले में चला था साथ वो मेरे
मगर फिर छोड़कर मुझको अँधेरे में गया था जो
जमाने को शिकायत भी मेरे इन आँसुओं से है
बहुत लम्बा चला मेरा ,जरा सा सिलसिला था जो
भुलाकर बेव़फाई को चला हूँ मैं उसे मिलने
मेरे इस दिल के गुलशन में मोहब्बत से ख़िला था जो
मगर ये ज़ाल था उसका ,फँसाया था मुझे उसने
रक़ीबों के ईशारों पर ,मुझे ख़त लिख़ रहा था जो
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उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
सुन्दर अशआर कहे हैं आ० उमेश कटारा जी
हार्दिक बधाई
प्रेम में दिल और दिमाग दोनों को शामिल कर, बहुत ही बेहतर शेर कहे है आपने आदरणीय उमेश जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें
पुरअसर गजल है i बधाई i
आदरणीय उमेश भाई , बढिया गज़ल हुई है , हार्दिक बधाई स्वीकार करें । बाक़ी विद्व जन बता ही चुके हैं , उन बातों का ख्याल करें ।
//मेरी तन्हा भरी उस रात में सँग सँग ज़गा था जो//
इस मिसरे में "तन्हा" शब्द के प्रयोग पर ज़रा नज़र-ए-सानी फरमाएं आ० उमेश कटारा जी. आ० राजेश कुमारी जी की बात का भी संज्ञान लें. वैसे ग़ज़ल बढ़िया हुई है जिसके लिए आपको हार्दिक बधाई प्रेषित है।
वाह ..वफ़ा और जफ़ा दोनों का बढ़िया मिश्रण है आपकी इस ग़ज़ल में
जमाने को शिकायत भी मेरे इन आँसुओं से है
बहुत लम्बा चला मेरा ,जरा सा सिलसिला था जो--ये शेर बहुत पसंद आया
परेशाँ तो नहीं है वो,अकेला तो नहीं है वो
मुझे है फिक्र क्यों उसकी, नहीं मेरा हुआ था जो--इसमें तकाबुले रदीफ़ दोष आया है देख लें
बहुत- बहुत दाद कबूलें आ० उमेश कटारा जी.
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