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ग़ज़ल------जुबाँ ग़र जह्र जो उगले जुबाँ को काट डालेंगे

कोई भी लफ्ज आगे से नहीं सच का निकालेंगे
जुबाँ गर जह्र जो उगले जुबाँ को काट डालेंगे

चलो तनहाई को लेकर यहाँ से दूर चलते हैं
ग़मे दिल के सहारे से नयी दुनिया बसालेंगे

मग़र तरक़ीब तो कोई बतादे बेव़फा हमको
तेरी हो याद ज़ोरों पर भला कैसे सँभालेंगे

कभी भी जुर्म के आगे मेरा सर झुक नहीं सकता
अना के वास्ते अपनी उसी दिन सर कटालेंगे

लगा है देश अब घुटने सियासत कायदे भूली
कभी आवाम के आँसू सियासत को डुबालेंगे

मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा

Views: 729

Comment

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Comment by Shyam Narain Verma on November 6, 2014 at 11:37am

इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको...................

Comment by umesh katara on November 5, 2014 at 8:52pm

shukriya Alok Mittal ji

Comment by umesh katara on November 5, 2014 at 8:51pm

Shukriya Giriraj Bhandari sahab

Comment by umesh katara on November 5, 2014 at 8:51pm

shukriya Er. Ganesh ji Bagi sahab

Comment by umesh katara on November 5, 2014 at 8:50pm

shukriya yograj prabhakar ji

Comment by umesh katara on November 5, 2014 at 8:50pm

shukriya Dr Gopal narayan ji

Comment by umesh katara on November 5, 2014 at 8:49pm

shukriya Sushil sarna ji

Comment by Sushil Sarna on November 5, 2014 at 6:21pm

चलो तनहाई को लेकर यहाँ से दूर चलते हैं
ग़मे दिल के सहारे से नयी दुनिया बसालेंगे … बहुत ही बढ़िया शे'र और दिलकश ग़ज़ल .... हार्दिक बधाई आदरणीय कटारा जी

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 5, 2014 at 5:00pm

बहुत सुन्दर कटारा जी i आपको बधाई i


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 5, 2014 at 2:36pm

बढ़िया ग़ज़ल हुई है आ० उमेश कटारा जी, बधाई स्वीकारें।

कृपया ध्यान दे...

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