"हेलो, हाँ डॉक्टर साहब ! नमस्कार, बिटिया की शादी का निमंत्रण कार्ड भिजवा दिया है, भाभी जी और बच्चो को लेकर अवश्य आइयेगा"
"जी भाई साहब, नमस्कार, कार्ड मिल गया है, श्रीमती जी बच्चो के साथ जायेंगी, मैं न आ सकूँगा, आपको तो पता ही है शहर में डायरिया फैला हुआ है"
"हां, वो तो है, पर आपकी भगिनी की शादी है, कमसे कम दो दिन का भी समय निकालिये"
"माफ़ी चाहूंगा भाई साहब, सीजन चल रहा है यही तो दो पैसे कमाने के दिन हैं"
(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट => लघुकथा : रुतबा
Comment
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी, सदैव की भाति आपकी टिप्पणी प्रोत्साहित करती है, हृदय से आभार स्वीकार करें।
आदरणीय प्रधान संपादक श्री योगराज प्रभाकर जी, लघुकथा आपकी पारखी नज़रों से होकर सफलता पूर्वक गुजर गयी यह मेरे लिए दोहरी ख़ुशी की बात है, प्रोत्साहित करती टिप्पणी हेतु बहुत बहुत आभार।
सच कहा सीजन के दिनों में (महामारी हो या एक्सीडेंट या प्राकृतिक आपदा )डाक्टर्स की तो चाँदी होती है वो क्यूँ अपना नुक्सान करेंगे ...शानदार कटाक्ष करती हुई लघु कथा ,बहुत- बहुत बधाई आ० गणेश जी.
कम से कम शब्दों में लघुकथा के मर्म को उजागर कर देना ...यह आपके ही बस की बात है. हार्दिक अभिनन्दन आपका आदरणीय श्री बागी जी
" कमाने के दिन "उसके आगे तो सारे नाते-रिश्ते व्यर्थ हैं।
एक विचित्र सत्य का चित्रांकन करती है यह रचना।
बहुत बहुत बधाई आदरनीय इंजीo गणेश जी बागी जी।
सच है, भगवान का दूसरा रूप कहे जाने वाले डॉक्टर्स भी अब व्यवसायियों की तरह ही सोचने लगे हैं। लघुकथा सुन्दर हुई है, "सीज़न" शब्द को "डायरिया" का बाकमाल भी "कुशन" दिया है। हार्दिक बधाई स्वीकारें भाई गणेश बागी जी।
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