लम्हा महकता … एक रचना
सोया करते थे कभी जो रख के सर मेरे शानों पर
गिरा दिया क्यों आज पर्दा घर के रोशनदानों पर
तपती राहों पर चले थे जो बन के हमसाया कभी
जाने कहाँ वो खो गए ढलती साँझ के दालानों पर
होती न थी रुखसत कभी जिस नज़र से ये नज़र
लगा के मेहंदी सज गए वो गैरों के गुलदानों पर
कैसा मैख़ाना था यारो हम रिन्द जिसके बन गए
छोड़ आये हम निशाँ जिस मैखाने के पैमानों पर
देख कर दीवानगी हमारी कायनात भी हैरान है
किसको तकते हैं भला हम तन्हा आसमानों पर
देखना मुड़ मुड़ के हमको उस गली के छोर तक
ज़िंदा है वो लम्हा महकता दिल के अरमानों पर
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत बढ़िया प्रस्तुति आ० सरना जी।
यादों के सुंदर-वन में /बसती हो मेरे मन में
छवि तुम्हारी ठहर गई /सपनों वाले दर्पण में
सुंदर गज़ल के लिए बधाई स्वीकर करें ,मान्यवर
बेहतरीन सरना जी i अच्छी गजल हुयी है i
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