"रमलू की घरवाली कौन हैं ? "
"साब मैं हूँ । "
"हम तेरे पति की मौत पर सरकार की तरफ से मुआवजा देने आये हैं, पढना जानती हैं ? "
"जी नही साब, अनपढ़ हूँ । "
"और कौन -कौन है घर में ? "
"साब मैं, 4 छोरिया 1 बेटो है। रमलू तो मर गयो । ये सारो बोझ मारे ऊपर छोड़ गयो । घर की हालत तो थे देख ही रया हो, खाने के लाले है। साब इतनी सर्दी में भी पहनने को कुछ नही ..." सिसकने लगती है ।
"चल ठीक है, रो मत ये......"
" इक मिनट " बात पूरी भी नही हुई थी की सहायक के कान मेँ वो अधिकारी फुसफुसाया ।
"सोच लो , मलाई मिल सकती हैं, "सर अनपढ़ हैं। मुआवजा तो 1 लाख का है । 25000 हजार हम रख लेते है इसे क्या पता लगेगा ? किसी को न बताने की धमकी दे दीजिएगा।"
"हाँ गरीब है चलो 20000 ही काट लेते हैंआखिर इंसानियत भी कुछ होती हैं ।"
मोलिक व् अप्रकाशित
Comment
सुन्दर व्यंग्य, सुन्दर लघु कथा। बधाई।
व्यंगात्मक शैली में प्रस्तुत यह लघुकथा चोट करती है, बधाई किशन कुमार जी।
सुंदर लघु कथा | भ्रष्टाचार में भी इंसानियत दिखाने की सुंदर कोशिश | वाह
har taraf bas pesa hi pesa dikh raha hai logon ko. insaniyat to jese khatam hi ho gai hai. bahut hi sarthak laghukatha hai aa. kisan ji. badhai
बहुत अच्छे विषय पर लिखी लघु कथा ...भ्रष्टाचार का बेहतरीन नमूना ...शानदार व्यंग्य ..हार्दिक बधाई आपको किशन कुमार जी.
विषय अच्छा है i शिल्प में सुधार अपेक्षित प्रतीत होता है i
भ्रष्टाचारी इसी प्रकार से इंसान बने हुए हैं ,सुंदर व्यंग्य लघुकथा के लिए बधाई
बहुत सुंदर लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई |
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