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पैसों की बात (लघुकथा)

आज विधानसभा में मामला बहुत गर्म हो गया था। नेता विपक्ष के तो कपड़े तक फाड़ दिए। उनको धक्का-मुक्की में दो-चार थप्पड़-लात भी जड़ दिए गए।
"नेता जी, कल हमें आपका समर्थन चाहिए।"- मंत्री जी का फोन आया।
"कैसा समर्थन! हम कोई समर्थन-वमर्थन नहीं देंगें। कपड़े फाड़ने तक तो ठीक था लेकिन हमारी पिटाई भी हुई है।"- नेता जी ने नाराज होते हुए कहा।
"आपकी नाराजगी जायज है लेकिन कल अगर आपका समर्थन ना मिला तो हम सब की तनख्वाह ना बढ़ पाएगी।"
"अच्छा, पैसों की बात है! तो ठीक है हम मान जाते हैं लेकिन ये मत समझना हम अपना अपमान भूल जाएंगें।"
अगले दिन बिना किसी विरोध के पूर्ण बहुमत से तनख्वाह बढोत्तरी का प्रस्ताव पास हो गया।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on November 27, 2014 at 7:04pm

बिलकुल सही चित्रण ऐसा ही होता है..हमारी विधान सभाओं और सांसद में....

Comment by Hari Prakash Dubey on November 27, 2014 at 5:36pm

सुन्दर लघुकथा ...हार्दिक बधाई 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 27, 2014 at 2:29pm

सही कहा है, बिलकुल ऐसे ही होता है। जहाँ देश और जनता की बात हो तो सब राजनीतिज्ञ अपनी अपनी बोली बोलने लगते हैं लेकिन जहाँ अपने फायदे की बात हो ये सब दलगत राजनीति से ऊपर उठ अपनी जेब की फ़िक्र में लग जाते हैं। बढ़िया लघुकथा हुई है भाई विनोद खनगवाल जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें।

Comment by विनोद खनगवाल on November 27, 2014 at 1:32pm
आदरणीय गणेश जी बहुत बहुत शुक्रिया।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 27, 2014 at 1:22pm

जहाँ लाभ, वहाँ सहमति ही सहमति :-)
यथार्थ को प्रदर्शित करती लघुकथा पर बधाई।

Comment by विनोद खनगवाल on November 27, 2014 at 12:27pm
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी सही कह रहे हो आप। धन्यवाद
Comment by विनोद खनगवाल on November 27, 2014 at 12:26pm
आदरणीय डॉ विजय जी धन्यवाद
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 27, 2014 at 12:06pm

अब राजनीति सिद्धांत की नहीं अपितु स्वार्थ की है  i  सादर i

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 27, 2014 at 11:40am
यथार्थ , बधाई , आदरणीय विनोद खनगवाल जी।

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