मुहब्बत का ज़ला हूँ मैं,पिघलता ही रहा हूँ मैं
ख़ुदा से माँगकर तुझको,भटकता ही रहा हूँ मैं
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समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको
मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं
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अगर सच बोलता हूँ तो,समझते हैं मुझे पागल
मगर सच्चाई को लेकर ,उबलता ही रहा हूँ मैं
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सितारों की कसम ले ले,नजारों की कसम ले ले
तेरे दीदार की ख़ातिर मचलता ही रहा हूँ मैं
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मेरी किस्मत के सौदागर ,मुझे इन्साफ तो दे दे
मेरी तनहाई को लेकर, सिमटता ही रहा हूँ मैं
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उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
narendrasinh chauhan जी शुक्रिया
डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी शुक्रिया
शुक्रिया Er. Ganesh Jee "Bagi"जी
शुक्रिया rajesh kumari जी
शुक्रियाRahul Dangi जी
समन्दर के किनारों ने समेटा है बहुत मुझको
मगर आँखों की कोरों से निकलता ही रहा हूँ मैं---बहुत खूब
सुन्दर ग़ज़ल हुई है आ० उमेश जी बहुत- बहुत बधाई
अच्छी ग़ज़ल हुई है , बधाई कटारा जी।
कटारा जी
बहुत उम्दा i बधाई i
अच्छी ग़ज़ल .... अच्छे अशआर ....बहुत बधाई ..........
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