212 122 212 12
बिन कहा समझते हैं कमाल है
क्या से क्या समझते हैं कमाल है
मैं मना करूँ तो हाँ जो हाँ करूँ
तो मना समझते हैं कमाल है
शर्म से निगाहें जो झुकी मेरी
वो अदा समझते हैं कमाल है
कद्र मैं करूँ जज्बात की जिसे
वो वफ़ा समझते हैं कमाल है
चूड़ियाँ बजें मेरी ये आदतन
वो सदा समझते हैं कमाल है
झाँकते वो मेरी आँखों के निहाँ
आईना समझते हैं कमाल है
सुर्ख देख आँखें नींद से मेरी
वो नशा समझते हैं कमाल है
प्यार मर्ज़ दिल का दर्द है फ़कत
वो दवा समझते हैं कमाल है
इश्क या मुहब्बत को मैं इक फितूर
वो ख़ुदा समझते हैं कमाल है
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ० विजय मिश्र जी,इस उत्साह वर्धन हेतु तहे दिल से आभार आपका |
आ० गिरिराज जी .आप जैसा ग़ज़लकार जब पाठक हो तो ग़ज़ल मुस्कुरा उठती है आपको ग़ज़ल पसंद आई ग़ज़ल मुकम्मल हो गई |आदरणीय --आपका मशविरा --चूड़ियाँ बजें को चूड़ियाँ बजीं करना शायद सही हो ? दूसरे अर्थ में सही होता किन्तु यहाँ काल दोष पैदा हो जाएगा क्यूंकि सानी में आज की या रोज मर्रा की बात हो रही है उसी को ध्यान में रखते हुए बजें अर्थात (अक्सर बजा करती हैं आदत से )भाव लिया है --यदि बजी करती तो नीचे सानी में समझे होना चाहिए था जो नहीं हो सकता ,आशा है मैं अपनी बात स्पष्ट कर पाई |बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय |
आदरणीया राजेश जी , एक और बढ़िया ग़ज़ल के लिये दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।
चूड़ियाँ बजें को चूड़ियाँ बजीं करना शायद सही हो ?
आ० डॉ० विजय शंकर जी,ग़ज़ल आपको पसंद आई,शेर अपनी बात कह पाए आप सुन पाए एक लेखक को और क्या चाहिए,मेरा लेखन कर्म सफल हुआ तहे दिल से आभार आपका सादर .
आ० डॉ० गोपाल नारायण जी ,ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ इस उत्साहित करती प्रतिक्रिया के सम्मुख नत हूँ दिल की गहराई से धन्यवाद प्रेषित है आदरणीय मेरा लिखना सार्थक हुआ |
महनीया
क्या कमाल की गजल कही है
हम भी यही कहते है,कमाल है
राजेश कुमारी जी की फितरत
को सभी जानते है कमाल है
पहले भी बहुत बाकमाल देखा
जिसने भी पढा बोला कमाल है
और कितने मोती है खजाने में
किसी को पता नहीं कमाल है
अभी क्या देखा और क्या पढा
है जो अब आने वाला कमाल है ---------- सादर i
मिथिलेश जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभारी हूँ
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