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शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||

शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ || 

सूरज की आँखों में कोहरे की चुभन रही 
धुप के पैरो में मेहंदी की थूपन रही 
शर्माती शाम आई छल गयी बाजारों को 
समझ गए रिक्शे भी भीड़ के इशारों को 
बच्चो के खेल सब कमरों में गए बिखर 
ठिठक गए चौराहे भी खम्भों के इधर उधर 
सुलग उठे हल्के हल्के बल्बों के मन उदास 

शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ || 

अलसाई पलकों से नींदों का बढ़ा मान
ले के थकन आ गयी स्वप्न का सारा सामान 
ठिठुरन भी चूल्हों के बाहों में बँट गई  
छाती की उस्ड़ता पैरो से लिपट गई 
फुटपाथी तापमान काया ने जोड़ लिया 
शीत की चादर को साँसों ने ओढ़ लिया 
करवटें भी भूल गई बाकी सब तलाश 

शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ || 

चाय के पियालो से ट्रेफिक की सीटी तक 
अनसन और हड़ताले आग से अंगीठी तक 
केवल बस केवल नाम रहा खास का 
देश मेरा लग रहा शीत में फुटपाथ सा 
दुखते हुए जोड़ है शीत का उलाहना है 
बुझते हुए चूल्हों को शीत का बहाना है 
शीत करे राजनीति मनरेगा है हताश 


शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||

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Comment

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Comment by ajay sharma on December 18, 2014 at 10:46pm

sabhi gurujano ko bahut bahut dhanyawad .........


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Comment by शिज्जु "शकूर" on December 17, 2014 at 8:36pm

बहुत बढ़िया आदरणीय अजय भाई 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 17, 2014 at 8:59am

ठिठुरन भी चूल्हों के बाहों में बँट गई  
छाती की उस्ड़ता पैरो से लिपट गई 
फुटपाथी तापमान काया ने जोड़ लिया 
शीत की चादर को साँसों ने ओढ़ लिया 
करवटें भी भूल गई बाकी सब तलाश ======bahut sundar

Comment by Dr. Vijai Shanker on December 17, 2014 at 3:20am
कहाँ-कहाँ नहीं भटकती है जिंदगी ,
जहां भटकती है वहीँ मिलती है ,
वहीँ कुछ पलती भी है जिंदगी ॥
बहुत ही सुन्दर , अर्थपूर्ण प्रस्तुति, आदरणीय अशोक शर्मा जी , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 16, 2014 at 11:40pm

अच्छी रचना ... बधाई 

Comment by Hari Prakash Dubey on December 16, 2014 at 11:24pm

शर्माती शाम आई छल गयी बाजारों को 
समझ गए रिक्शे भी भीड़ के इशारों को .....बहुत सुन्दर रचना है ! बधाई !

Comment by somesh kumar on December 16, 2014 at 11:10pm

आप की रचना दिल को छु गई और मुझे इसे फ-बुक पे शेयर करने को विवश होना पड़ा |बधाई 

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