बर्तन भांडे चुप चुप सारे
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बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
टीन कनस्तर खाली खाली
माचिस देख निराशा है
लकड़ी की आँखें गीली बस
स्वप्न धूप के देख रही
सीली सीली दीवारों को
मन मन में बस कोस रही
पढा लिखा संकोची बेलन
की पर सुधरी भाषा है
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
स्वाभिमान बीमार पडा है
चौखट चौखट घूम रहा
गिर गिर पड़ता है, हर दर में
जैसे चौखट चूम रहा
थाली का आकार बिगड़ अब
लगता जैसे कासा है
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
थोड़ी हवा चली, इच्छाएं
आँगन तक ले आये हैं
पल भर को जो धूप खिली थी
इनको भी दिखलाये हैं
जब तक सांस बची है अपनी
तब तक रखनी आशा है
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
सादर आभार आदरणीय.. .
आदरणीय सौरभ भाई , मुझे अपने चुनाव पर पूरा भरोसा था और है । मेरे प्रश्न के उत्तर मे आपने जो कुछ भी कहा है उससे मुझे मेरा उत्तर मिल गया है
//आदरणीय, मेरे लिए साहित्यकर्म कभी अन्यथा प्रदर्शन का काम नहीं रहा है. यह मेरे लिए साधना का एक प्रारूप है.//
बहुत सही बात कही आदरणीय , अनुकरणीय । आपका आभार ।
आपका प्रश्न या आपकी शंका पर अब मैं क्या बोलूँ आदरणीय ?
आपने वस्तुतः एक बहुत ही सही प्रश्न इस मुआमले में एक बहुत ही गलत आदमी से किया है.
मैं स्वयं कई विधाओं पर कार्य करता हुआ पाया जाता हूँ न ! मेरी कौन सी एक विधा है ? यही तो इस मंच का उद्येश्य है कि सभी रचनाकार उपलब्ध विधाओं में जानकार हो जायें.
फिर, सही ग़ज़ल या पक्की ग़ज़ल की क्या परिभाषा हो सकती है, इसका कोई मानक है ? अरूज़ के अनुरूप सही मिसरों को जमा कर दिया जाय तो क्या पक्की ग़ज़ल मानी जायेगी ? इस प्रश्न पर शायद ही कोई सचेत ग़ज़लकार या पाठक हाँ कहेगा.
एक उदाहरण लीजिये, मुनव्वर राणा या राहत इन्दौरी को आज हम मंचों पर सफल शायर/ ग़ज़लकार मानते हैं. क्या उनकी सभी ग़ज़लें पक्की हैं ? कई उस्ताद तो मुनव्वर को एक मुकम्मल शायर ही मानने से इन्कार कर देते हैं. फिर, मुकम्मल कौन है ? ऐसे मुकम्मल कितने हैं ? तो क्या ग़ज़लें कहना बन्द कर देनी चाहिये कि हम मीर, ज़ौक़, ग़ालिब, नूर आदि-आदि न हुए, न होंगें ? फिर, ग़ालिब की क्या सभी ग़ज़लें उनकी वाली मेयार की हैं ? नहीं न !
आदरणीय, मेरे लिए साहित्यकर्म कभी अन्यथा प्रदर्शन का काम नहीं रहा है. यह मेरे लिए साधना का एक प्रारूप है. इसी कारण, मुझसे कई नये हस्ताक्षर बिदकते हैं. विशेषकर वो नये हस्ताक्षर, जो आनन-फानन में नाम-प्रसिद्धि-पहुँच-वाहवाही के आग्रही मुखापेक्षी हैं. यह आप भली-भाँति जानते हैं.
अतः, हम रचनाकर्म करें और तार्किक नम्रता के साथ अपनी रचनाओं को लगातार साझा करते चलें. सुधी दृष्टियों में सार्थक रचनायें स्वयं आ जायेंगीं.
आदरणीय गिरिराजभाई, यह एक अकाट्य सत्य है कि कोई रचनाकार रचनाओं के कारण ही होता है. न कि रचनाकार के कारण रचनाएँ होती हैं. यदि उथली रचनाएँ किसी रचनाकार के नाम की धमक के कारण तात्कालिक प्रसिद्धि पा भी गयीं तो उनका हश्र आने वाला काल अवश्य तय कर देता है.
सादर
आदरणीय सौरभ भाई , बिना पूरी तरह जाने हो गई नवगीत रचना पर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया से बहुत कुछ जानने समझने को मिला । इसके लिये आपका दिल से आभारी हूँ ।
आप जैसे रचना कार से सराहना पा , रचना धन्य हुई , और मेरा मनोबल भी कुछ बढ़ा ।
एक प्रश्न - एक शंका --- अन्यान्य विधाओं पर मै जो प्रयास करते रहता हूँ वह मेरे लिये कितना सही कितना गलत है , क्या मुझे जिसे मै अपनी मूल विधा ( गज़ल ) समझता हूँ प्रयास को वहीं तक सीमित रखना चहिये , जब तक गज़ल में पक्का न हो जाऊँ । कहीं ऐसा न हो कि थोड़ा थोड़ा कई विधाओं को जान कर किसी मे भी पक्का न हो पाऊँ । सादर ।
सराहना और रचना को स्वीकार करने के लिये आपका पुनः हार्दिक आभार ।
आदरणीय गिरिराज भाई,
नवगीत विधा की प्रस्तुतियों के मूल में समाज के उस वर्ग का सहज प्रभाव दीखता है जो री-लोकेशन के दर्द को भोगता हुआ बोनसाई जीवन जीने को अभिशप्त है. साथ ही, री-लोकेशन के पूर्व की परिस्थितियों का खूँटा यानि गाँव गेय-पंक्तियों में साधिकार उपस्थित होता है. जिन दुखद कारणों से आम आदमी का री-लोकेशन संभव हुआ होता है, वह विड़ंबनाकारी न हो तो री-लोकेशन कभी दर्दीला न हो. इसी कारण नोस्टैलजिक वर्णन, यथार्थ शाब्दिक होना, समाज के भदेस तथ्य आदि अक्सर नवगीतों के मान्य विन्दु की तरह स्वीकारे जाते हैं. जबकि ऐसा हमेशा नहीं होता.
आपकी रचनाधर्मिता आजकल संप्रेषणीयता को केन्द्रित कर विधाओं को साधने में लगी है. यह किसी उर्वर लेखनकर्मी की सचेत अवस्था का परिचायक है. ग़ज़ल की विधा से नवगीत की विधा का सफ़र वैसा सहज नहीं होता, जैसा अक्सर मान लिया जाता है. नवगीत के विन्दु ग़ज़ल के शेरों से भिन्न तो होते ही हैं, अपने प्रतीकात्मक विन्दुओं और बिम्बों के साथ-साथ वर्णनों में अपने सपाटपन के लिए भी जाने जाते हैं.
प्रस्तुत गीत खुल कर अपने तथ्यों को प्रस्तुत करने में सफल हुआ है. उपर्युक्त कहे के आलोक में देखें तो आपका प्रस्तुत नवगीत सफल है.
मानवीय मूल्यों के लगातार धूसरित होने के पक्ष को इन पंक्तियों के माध्यम से कितनी गहराई से देखने का प्रयास हुआ है ! -
स्वाभिमान बीमार पडा है / चौखट चौखट घूम रहा / गिर गिर पड़ता है, हर दर में /
जैसे चौखट चूम रहा / थाली का आकार बिगड़ अब / लगता जैसे कासा है
या इससे पहले, रसोईघर के बर्तनों का मानवीयकरण रोचक बन पड़ा है -
लकड़ी की आँखें गीली बस / स्वप्न धूप के देख रही / सीली सीली दीवारों को / मन मन में बस कोस रही / पढा लिखा संकोची बेलन / की पर सुधरी भाषा है.
बहुत खूब आदरणीय !
वैसे आपने जिस आत्मीयता से रचनाकर्म किया है कि प्रतीत नहीं होता, यह प्रस्तुति इस विधा में आपकी प्रथम प्रस्तुति है.
हार्दिक बधाइयाँ व शुभकामनाएँ.
आपसे और की अपेक्षा है.
सादर
आदरणीया राजेश जी , गीत की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय बड़े भाई अखिलेश जी , रचना को आपका अनुमोदन मिला तो रचना कर्म सार्थ्क होगया ! आपका दिली शुक्रिया ।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आप लोगों की छ्त्र छाया में अलग अलग विधाओं में प्रयास करते रहता हूँ , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
अच्छा नवगीत लिखा है आ० गिरिराज जी ,हार्दिक बधाई |
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