नये साल के नये माह का
मौसम आया..
लेकिन सूरज भौंचक
कितना घबराया है !
चटख रंग की हवा चली है
चलन सीख कर..
खेल खेलती, बंदूकों के राग सुनाती
उनियाये कमरों में बच्चे रट्टा मारें
पंथ-पृष्ठ की तहरीरों से
’वाद’ सिखाती
मंतव्यों में तथ्य नहीं, बस तेरा-मेरा,
सत्य वही जो
सबसे जबरन मनवाया है !
सरसाता है ख़ौफ़
उजाला झींसी-झींसी
अगला करे सवाल-- ’पंथ के नाम उचारें..’
यह कैसा संभाव्य,
देह बारूद-छुई ले,
सहमे-सहमे लोग
बाड़ में बने कतारें.
नया सवेरा कैसा,
जब आशाएँ सोयीं..
हृदय हूक से भरा हुआ फिर
बह आया है !
किन मूल्यों को प्रात समेटे
बहका आया
उन्मादों की हनक,
क्रोध के चिह्न भाल पर.
सिर की गिनती मात्र लक्ष्य हो
यदि चिंतन का
लानत ऐसे किसी क्रोध
या वाक्-जाल पर !
चिता-दग्ध है
किन्तु, क्षार है, सम्यक उर्वर
लिए ओस नम तभी हरा
मन रह पाया है !
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-सौरभ
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
किन मूल्यों को प्रात समेटे
बहका आया
उन्मादों की हनक,
क्रोध के चिह्न भाल पर.
सिर की गिनती मात्र लक्ष्य हो
यदि चिंतन का
लानत ऐसे किसी क्रोध
या वाक्-जाल पर !
आदरणीय सौरभ साहब कमाल का नवगीत है | अद्भुत शिल्प और विलक्षण भावों का संगम है |शब्दों का चयन और वैचारिक कसावट लासानी है |नवगीत परम्परा को समृद्ध करती हुई रचना हेतू कोटि अभिनन्दन|सादर बधाई |
सादर आभार आदरणीय हरि प्रकाशजी.
आदरणीया राजेश कुमारीजी, मेरे नवगीत पर आयी आपकी प्रतिक्रिया मुझे दंग कर गयी. आप कितनी गहराई से रचनाधर्मिता को मान देती हैं ! आपकी सदाशयता के प्रति मैं नत हूँ, आदरणीया.
मेरी इस प्रस्तुति के आलोक में जिस तरह से आपने मेरे पिछले वर्ष के इसी विषय पर लिखे नवगीत का मिलान कर कविकर्म और कविमूलक संवेदना को समझने का प्रयास किया है वह एक कवि-हृदय ही कर सकता है. वह भी जिसके हृदय में कविता और साहित्यकर्म के लिए अथाह श्रद्धा हो.
आपके शब्दों के लिए मैं हृदयतल से आभारी हूँ तथा आपके अनुमोदन को इस प्रस्तुति का पारितोषिक मानता हूँ. निस्संदेह यह सामान्य प्रतिक्रिया नहीं है.
सादर आभार आदरणीया
भाई सोमेशजी, अपने नवगीत पर आपकी प्रतिक्रिया को हृदय से स्वीकार करता हूँ. वैसे आपकी अभिव्यक्ति तनिक और संप्रेषणीय होती तो मुझे और आश्वस्ति होती .
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ भाई , वर्तमान मे फैले आतंकी ख़ौफ , और जबरन धर्म - पंथ के नाम पर नफरत की सीख को बहुत सुन्दर शब्द मिले है , इस सहमी हुई फिज़ा मे नया सवेरा , नव वर्ष की कहाँ सम्भावना बच पाती है । हमेशा की तरह आपकी बेहतरीन नवगीत की अंतिम पंक्तियों में कुछ शुभता की सम्भावना ज़रूर झलक रही है , जो आवश्यक भी है । आशायें ही तो जीवित होने का प्रमाण हैं । आपको इस नवगीत के लिये ढेरों बधाइयाँ ।
नये साल के नये माह का
मौसम आया..
लेकिन सूरज भौंचक
कितना घबराया है ! ....आदरणीय सौरभ पाण्डेय सर बहुत बधाई इस सुन्दर रचना पर !सादर !
किन मूल्यों को प्रात समेटे
बहका आया
उन्मादों की हनक,
क्रोध के चिह्न भाल पर.
सिर की गिनती मात्र लक्ष्य हो
यदि चिंतन का
लानत ऐसे किसी क्रोध
या वाक्-जाल पर !
चिता-दग्ध है
किन्तु, क्षार है, सम्यक उर्वर
लिए ओस नम तभी हरा
मन रह पाया है !-----आज के,आने वाले कल के हालात की चिंता इन नवगीत की बुनियाद हुई हैं ...नव वर्ष की क्या ख़ुशी मनाएं ?
न जाने चिंगारी अभी कहाँ कहाँ दबी है, कब भड़क जाए क्या पता ! ये चटख रंग की हवा सुकून नहीं देती दमघोटू हवा है ये. आप के शब्द चयन, प्रस्तुतीकरण के सम्मुख नत हूँ आदरणीय. आप की पिछले नव वर्ष की रचना .. आँखों के गमले में गेंदे आने को हैं ,नये साल की धूप तनिक तुम लेते आना .. आज भी जेहन में मीठी सी सिहरन पैदा करती है. उसकी खुशबू सब को महकाती है, और, आज की रचना को पढ़कर ये फ़र्क कोई भी महसूस कर सकता है कि कवी या लेखक सामाजिक वातावरण से किस तरह जुड़े होते हैं. उनका शब्द-शब्द परिस्थितियों को जीता है. भगवान ना करे कभी किसी लेखक की कलम में गेंदों की खुशबू/मुलामियत के स्थान पर बारूद की गंध भरे.
इन्ही शुभकामनाओं के साथ बहुत बहुत बधाई इस सामयिक मर्मस्पर्शी नवगीत हेतु |
आपकी इस रचना में यथार्थ -सोच है ,आँख बंद किए ,बिना चिंतन-तर्क के रटना ,विशेष तौर पे धर्म का ऐसा पाठ और उसके दुष्परिणामों का ताज़ा घटनाक्रम |जो भी हो सफल और सार्थक नवगीत के लिए आपको साधुवाद
आदरणीया मजरीजी, विश्वास है आपने प्रस्तुत नवगीत को इत्मिनान से पढ़ लिया है. आपके स्वर में सुनना एक उपलब्धि होगी.
सादर धन्यवाद
आदरणीय श्याम नारायणजी, आपकी विशिष्ट शैली में दी गयी बधाई सिर आँखों पर.
सादर
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