1222-1222-1222-1222
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समंदर पार वालों ने हमारा फ़न नहीं देखा
जवाँ अहले वतन ने आज तक बचपन नहीं देखा
जुरूरी था, वही देखा, ज़माने की ज़ुबानों में
कि मीठी बात देखी है कसैलापन नहीं देखा
तबस्सुम देख के मेरी, तसल्ली हो गई उनको
हमारी आँख में सोया हुआ सावन नहीं देखा
निजामत का भला अपना वतन कैसा ख़ियाबां है
कि जिसमें गुल नहीं देखे कहीं गुलशन नहीं देखा
खुदी को देख के वो तो यकीनन खौफ खा जाती
किसी भी रात ने कोई कभी दरपन नहीं देखा
गुजारिश है गुजारे की, गिरां कोई नहीं मांगी
तसव्वुर में जहां ऐसा कभी जबरन नहीं देखा
ज़रा तनहां अगर छोड़ा जहां ने रो दिए साहिब
यतीमों का कभी तुमने अकेलापन नहीं देखा
जियारत क्या, परस्तिश क्या, अकीदत क्या, इबादत क्या
किसी मासूम बच्चे का अगर चितवन नहीं देखा
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment
तबस्सुम देख के मेरी, तसल्ली हो गई उनको
हमारी आँख में सोया हुआ सावन नहीं देखा
सुंदर प्रस्तुति ,अंतिम लाइने भी दिल को गहरे तक छु रही हैं ,
जियारत क्या, परस्तिश क्या, अकीदत क्या, इबादत क्या
किसी मासूम बच्चे का अगर चितवन नहीं देखा ......बहुत ही सुन्दर ,हार्दिक बधाई !
इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको |
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