अपने वज़ूद की ख़बर इस तरह हम देते हैं
मुट्ठी में रेत उठाकर हम हवा में उड़ा देते हैं
क्या हुआ जो इस उम्र में हम बे-समर हो गए
ये शज़र आज भी गुज़री बहारों की हवा देते हैं
अब हंसी भी लबों पे पैबंद सी नज़र आती हैं
जाने लोग आँखों में कैसे नमी को छुपा लेते हैं
रुख से चिलमन उठते ही नज़रें भी बहकने लगी
हम भी बेजुबानों की तरह पैमाने को उठा लेते हैं
जागते रहे तमाम शब् हम उसके इंतज़ार में
बार बार चरागों को हम जलने की सज़ा देते हैं
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Hari Prakash Dubey जी रचना पर आपके स्नेह का हार्दिक आभार।
आदरणीय डॉ गोपाल नरायन श्रीवास्तव जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार। गीतिका पर आपके द्वारा बताई गयी संरचना से मैं पूर्णतः सहमत हूँ। किन्तु किसी विद्वान सहयोगी ने गीतिका के बारे में जो बताया उसके अनुसार गीतिका पुराना गीतिका छंद या हरिगीतिका नहीं है। ये ग़ज़ल से मिलती जुलती है किन्तु ग़ज़ल के नियमों से मुक्त है। इसमें कम से कम पाँच युग्म अवश्य हों .पहले युग्म की दोनों पंक्तियाँ समांत पर और बाद के प्रत्येक युग्म की दूसरी पंक्ति का समांत प्रथम युग्म के समान्त जैसा ही होगा जबकि पहली पंक्ति अतुकांत होगी l प्रत्येक युग्म की अभिव्यक्ति स्वतंत्र होगी !
इसी भाव को ध्यान में रखकर मैंने इस ग़ज़ल रूपी गीतिका को रचा। इसीलिये मैंने इसे गीतिका का नाम भी दिया।' फ्री वर्स' से आपका क्या अभिप्राय है आदरणीय। अगर आप इसे गीतिका की श्रेणी में नहीं रखते तो मैं इसे स्वतन्त्र अभिव्यक्ति भी कहा जा सकता है। वैसे आपका सुझाव और मार्गदर्शन मेरे लिए अमूल्य हैं। सुझावात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार। कृपया स्नेह बनाये रखें।
सरना जी
बहुत बेहतरीन लिखा आपने i पर मान्यवर यह गीतिका नहीं है i गीतिका में मात्रा (14 ,12 ) होती है i मुट्ठी में रेत उठाकर -----इस पंक्ति में 30 मात्राएँ हैं i यह आपकी फ्री वर्स है i भाव की दृष्टि से बहुत सबल है i
क्या हुआ जो इस उम्र में हम बे-समर हो गए
ये शज़र आज भी गुज़री बहारों की हवा देते हैं
अब हंसी भी लबों पे पैबंद सी नज़र आती हैं
जाने लोग आँखों में कैसे नमी को छुपा लेते हैं
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा ने मेरी लेखनी को जो मान दिया है उसके लिए बंदा आपका शुक्रगुज़ार है। बाकी रही बहर की बात तो इसे आप गीतिका ही मानें तो ठीक होगा। क्योँकि बहर के जाल में मैं उलझ जाता हूँ।
रुख से चिलमन उठते ही नज़रें भी बहकने लगी
हम भी बेजुबानों की तरह पैमाने को उठा लेते हैं.....आदरणीय सुशील सरना जी इस रचना पर हार्दिक बधाई !
आदरणीय सुशील सरना जी सुन्दर भावों से सजी रचना के बेहतरीन प्रयास के लिए बधाई
एक निवेदन है यदि ये ग़ज़ल है तो कृपया बहर अवश्य लिख देवे, हम जैसे पाठकों के लिए बड़ी परीक्षा हो जाती है. सादर
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