2122 2122 2122 212
दिख रही निश्चिंत कितनी है अभी सोयी हुई
गोद में ये खूबसूरत जिन्दगी सोयी हुई
बाँधती आग़ोश में है.. धुंध की भीनी महक
काश फिर से साथ हो वो भोर भी सोयी हुई
चाँद अलसाया निहारे जा रहा था प्यार से
मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोयी हुई
खेलता था मुक्त.. उच्छृंखल प्रवाही धार से
लौट वो आया लिये क्यों हर नदी सोयी हुई
बोलिये किसको सुनायें जागरण के मायने
पत्थरों के देस में है हर गली सोयी हुई
अब नहीं छिड़ता महाभारत कुटिल की चाल पर
अब लिये पासे स्वयं है द्रौपदी सोयी हुई
जा रहा है रोज सूरज पार सरयू के सदा
स्वर्णमृग की सोनहिरनी हो अभी सोयी हुई
========
--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
अब नहीं छिड़ता महाभारत कुटिल की चाल पर
अब लिये पासे स्वयं है द्रौपदी सोयी हुई
बहुत खूब
आदरणीय सौरभ सर,..... सच कहूं तो चमत्कृत हूँ इस ग़ज़ल को पढ़कर ...
आदरणीय सौरभ सर बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कहीं है हर अशआर अपने में मुकम्मल दास्तान बयाँ करता हुआ ... हर गज़लगो के लिए ग़ज़ल की कहन सीखने के लिए एक पूरा चैप्टर है ये ग़ज़ल. आपकी अनुभवी लेखनी को नमन ...
हर मुक्कमल शे'र में खुबसुरत अर्थ निकलता है ,पहले में पितृभाव ,दुसरे में माँझी को पाने की तड़प ,तीसरा पुनः पितृ भाव से लबरेज़ ,चौथे में पिता के जीवन में आ रही स्थिरता या उसकी रसिकता का समाप्त होना ,अगली में लोगों की तर्कशक्ति का समाप्त होना ,अगली में नारी के बदले स्वरूप यानि पूरी गज़ल एक गम्भीर संदेश दे रही है |नमन है आपकी इस रचना को
बहुत सुंदर आदरणीय सौरभ सर बहुत कठिन रदीफ़ है आपने खूब निभाया है दिली दाद कुबूल फरमायें
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