२१२२ २१२२ २१२२ २१२
कब तलक दीपक जलेगा ये मुझे मालूम है
तप रहा सूरज ढलेगा ये मुझे मालूम है
कौन ऊँचाई पे कितनी ये नहीं मुझको पता
पर जमी में ही मिलेगा ये मुझे मालूम है
कितनी दौलत वो कमाता आप उससे पूँछिये
साथ उसके क्या चलेगा ये मुझे मालूम है
अपनी खुशियों के लिए जो आज कांटे बो रहे
कल उन्हें भी ये खलेगा ये मुझे मालूम है
वो बबूलों को लगाते आम की उम्मीद में
क्या हकीकत में फलेगा ये मुझे मालूम है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शिज्जू जी .. आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद साद र
आदरणीय डॉ आशुतोष जी ............कौन ऊँचाई पे कितनी ये नहीं मुझको पता
पर जमी में ही मिलेगा ये मुझे मालूम है.......बहुत खूब ,हार्दिक बधाई आपको !
आदरणीय डॉ आशुतोष जी बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने .....बधाई स्वीकार करें।
ये दोनों अशआर उम्दा है लेकिन एक ही भाव के दो अशआर एक ही ग़ज़ल में है .. उचित लगे तो इनका क्रम बदल दे
अपनी खुशियों के लिए जो आज कांटे बो रहे
कल उन्हें भी ये खलेगा ये मुझे मालूम है
वो बबूलों को लगाते आम की उम्मीद में
क्या हकीकत में फलेगा ये मुझे मालूम है
सादर
कौन ऊँचाई पे कितनी ये नहीं मुझको पता
पर जमी में ही मिलेगा ये मुझे मालूम है
बहुत साफ़ और सच्ची बयानी है इस शे;र में वैसे पूरी गज़ल ही आत्मचिंतन को प्रेरित करती है |
बहुत खूब आदरणीय डॉ आशुतोष जी रदीफ़ो काफिया खूब निभाया है आपने बधाई स्वीकार करें।
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