“वर्मा साहब, एक बात समझ में नहीं आयी, आपने फ़िल्म प्रोडक्शन पर अधिक और फ़िल्म प्रमोशन एवं मिडिया मैनेजमेंट पर मामूली बजट का प्रावधान किया है, जबकि आजकल तो प्रमोशन पर प्रोडक्शन से कहीं अधिक बजट खर्च किये जा रहे हैं.”
“डोंट वरी दादा ! कम प्रमोशनल बजट में भी फ़िल्म हिट करवाई जा सकती है.”
“अच्छा अच्छा, मतलब आप फ़िल्म में आइटम डांस वगैरह डालने वाले है.”
“नो नो, इटिज वेरी ओल्ड ट्रेंड”
“तो अवश्य कोई किसिंग या बोल्ड बेड सीन दिखाने को सोच रहे हैं.”
“अरे नहीं दादा इसमें नया क्या है ये सब तो अब टीवी सिरिअल वाले भी दिखा रहे हैं”
“फिर क्या सोचा है आपने ?”
“अरे कुछ नहीं, धार्मिक भावनाएं आहत करने वाले कुछ सीन घुसेड देंगे, धर्मगुरु और मिडिया वाले स्वतः फ़िल्म प्रमोट कर देंगे और वो भी मुफ्त में.”
“और सेंसर बोर्ड ?”
“दादा वो सब आप मुझपर छोडिये, फ़िल्म इंडस्ट्री में मैं कोई नया हूँ क्या ? सब मैनेज हो जाता है.”
(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment
आदरणीय डॉ विजय प्रकाश जी, लघुकथा पर आपका आशीर्वाद प्राप्त हुआ, लेखन कर्म सार्थक हुआ, बहुत बहुत आभार.
सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीय सौरभ भईया .
आदरणीय बागी साहब अच्छा व्यंग्य है ,ताज़ा घटनाक्रम पर त्वरित तंज़ ,लाज़वाब |सादर अभिनन्दन |
सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी.
एक-एक शब्द ऐसा तौल कर लिखा है आपने, पूर्ण सजीव सा चित्रण लगा. आजकल यही सब कुछ हो रहा है. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें आदरणीय गणेश जी
अच्छी कहानी के लिए हार्दिक बधाई | |
पर्दे के पीछे की कड़वी सच्चाई यही है ! आदरणीय बागी जी सामयिक विषय पर आपकी सुन्दर लघुकथा के लिये बधाइयाँ प्रेषित है।
बहुत सही ... बेहतरीन लघुकथा आदरणीय
लघुकथा का विषय और उसकी गहनता दोनों प्रभावित करती हैं और एक नए पैतरे की और ध्यान ले जाती हैं |रचना सार्थक है और रचनाकार सफल |
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