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‘कवियों से मुझे नफरत है

घिन आती है उनके वजूद से

जैसे सच्चे मुसलमान को 

मूलधन के सूद से’

मुझसे कुबेर ने कहा

मैंने आघात को सहा

 

‘कवि तो मै भी हूँ

अँधेरे का रवि मै ही हूँ

जहाँ नहीं जाता रवि

वहां पहुँच जाता कवि 

फिर आपको घिन क्यों है ?’

 

‘वो बात जरा यों है,

कवि को गरीब ही दिखते है

उन पर ही लिखते हैं

उन्हें दिखता है –काली रात, अंधेरा

क्यों नहीं देख पाते वे सवेरा

हमारी सम्पन्नता क्यों नहीं लुभाती

अमीरों की याद उन्हें क्यों नहीं आती ?

सुख पर समृद्धि पर कलम नहीं चलती

अमीरों के ठाठ पर दाल नहीं गलती

इसीलिये घिन हमें होती है तुम से

सीधे नहीं होते तुम कुत्ते की दुम से’

 

मैंने कहा- ‘मै क्या लिखूं

विधि ने जब लिख दिया I

तुम संपन्न हो ईश्वर का हाथ है

गरीबो का हाथ ही उनका जगन्नाथ है

हमें केवल उनका असह्य दुःख दिखता है

जिन्हें भगवान् से भी कुछ नहीं मिलता है

तुम बेईमान, मक्कार घूस लेते हो 

गरीब की हड्डी-पसली चूस लेते हो   

तुम मुझे गाली दो या सारमेय कहो

भौंकते तो तुम भी हो, औकात में रहो I’

(मौलिक व् अप्रकाशित )

 

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Comment by khursheed khairadi on December 29, 2014 at 3:44pm

आदरणीय गोपालनारायण साहब ,सुन्दर प्रस्तुति है |तंज़ भी और करुणा भी |सादर अभिनन्दन 

मैंने कहा- ‘मै क्या लिखूं

विधि ने जब लिख दिया I

तुम संपन्न हो ईश्वर का हाथ है

गरीबो का हाथ ही उनका जगन्नाथ है

हमें केवल उनका असह्य दुःख दिखता है

जिन्हें भगवान् से भी कुछ नहीं मिलता है

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 29, 2014 at 12:31pm

सत्य को इतना बदसूरत बना रखा है कि उससे घिन ही आती है. चाहे परिणाम सदा उसी के पक्ष में हों. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, बधाई स्वीकारें आदरणीय डा. गोपाल जी

Comment by Shyam Narain Verma on December 29, 2014 at 10:06am

बेहद उम्दा हार्दिक बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 6:54am

आदरणीय बड़े भाई , सुन्दर,  सार्थक  कविता हुई है  । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

Comment by somesh kumar on December 28, 2014 at 11:34pm

कविता स्वयं में  सफल है ,पर क्या वास्तव में कवि केवल गरीब के गीत ही लिखता है या क्या केवल गरीबी और बेबसी के गीत लिखने वाले को ही कवि माना जाए |वस्तुतः कई बार महसूस होता है कि ऐसा लिखकर हम गरीब और कवि दोनों का तिरस्कार कर रहे हैं |बेशक अभावों में कवि पलता है पर सफल कवि पेट भरने के बाद ही लिख पाता है |उसकी सफ़लता से ही उसका पेट पलता है |क्षमा करें कवि का कर्म केवल लिखना है और वो समय और लोगों के हिसाब से गीत लिखता है |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 8:19pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर इस शानदार प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ! सादर 

Comment by Hari Prakash Dubey on December 28, 2014 at 7:46pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर...

कवि को गरीब ही दिखते है

उन पर ही लिखते हैं.....बहुत सुन्दर ! हार्दिक बधाई ! सादर 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 28, 2014 at 6:45pm

बड़ी बात कह गये आदरणीय, कविता भाव स्तर पर बहुत बढ़िया लगी, बधाई स्वीकार करें . मुझे जाने क्यों रचना कुछ अधिक शाब्दिक लगी, सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2014 at 6:27pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर बेहतरीन रचना है वाकई एक कवि जो देख सकता है वो एक आम आदमी नहीं कवि यदि आप जैसा अनुभवी व्यक्ति हो तो वो हर पर्दे के पीछे छुपा सच देख सकता है। बहुत बहुत बधाई आदरणीय आपको इस कामयाब रचना के लिये 

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