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मैं चौक गया
आईना देखकर
परख कर
अपनी परछाई
मुख में झुर्री
काली काली रेखाएं
आंखों के नीचे
पिचका हुआ गाल
हाल बेहाल
सिकुड़ी हुई त्वचा
कांप उठा मैं
नही नही मैं नही
झूठा आईना
है मेरे पिछे कौन
सोचकर मैं
पलट कर देखा
चौक गया मैं
अकेले ही खड़ा हूॅं
काल ग्रास होकर ।
.......................
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on January 1, 2015 at 9:20pm

आदरणीय रमेश भाई , बढ़िया रचना हुई है , रचना के भाव भे बहुत सुन्दर लगे , हार्दिक बधाई ॥

Comment by रमेश कुमार चौहान on January 1, 2015 at 8:10pm

आप सभी का इस उत्साह वर्धन के लिये सादर आभार

Comment by khursheed khairadi on January 1, 2015 at 2:24pm

आदरणीय रमेश चौहान जी , विधान का बख़ूबी निर्वहन करते हुये ,भावों को बड़े जतन के साथ सहेजा है आपने |अति सुन्दर |सादर अभिनन्दन 


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 1, 2015 at 7:54am

आदरणीय रमेश भैया बहुत अच्छी भावपूर्ण रचना है बहुत बहुत बधाई आपको


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 31, 2014 at 8:24pm
आदरणीय रमेश चौहान जी चोका मेरे लिए नई विधा है इसलिए विलम्ब से कमेंट कर रहा हूँ। इसका विधान भारतीय छंद की पोस्ट में पढ़ा ।5+7+5...5+7+5+7+7 का विन्यास आपने खूब निभाया है। भावाभिव्यक्ति तो बेहतरीन है ही। इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई। मेरा इस नई विधा की ओर आकर्षण बढ़ने लगा है इसके लिए आपका आभार भी।
Comment by Hari Prakash Dubey on December 31, 2014 at 7:39pm

आदरणीय रमेश चौहान जी,सुन्दर प्रयास ,हार्दिक बधाई !

Comment by somesh kumar on December 31, 2014 at 4:21pm

सबका आने वाला वक्त ,आईना बता देता है यानि आत्म-अवलोकन से 

Comment by Dr. Vijai Shanker on December 31, 2014 at 11:04am
सच ही तो है. वक़्त आईने में दिखाई नहीं देता है, सिर्फ अपने हस्ताक्षर छोड़ता है.
बधाई , इस रचना पर, आदरणीय रमेश चौहान जी , सादर।

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