नहीं वे जानते मुझको, दुश्मनी करके बैठे हैं ,
मेरे कुछ मिलने वाले भी, उन्हीं से मिलके बैठे हैं ,
समझकर वे मुझे कायर, बहुत खुश हो रहे नादाँ
क़त्ल करने मुझे देखो , कब्र में घुस के बैठे हैं .
गिला वे कर रहे आकर , हमारे गुमसुम रहने का ,
गुलूबंद को जो कानों से , लपेटे अपने बैठे हैं .
हमें गुस्ताख़ कहते हैं , गुनाह ऊँगली पे गिनवाएं ,
सवेरे से जो रातों तक , गालियाँ दे के बैठे हैं .
नतीजा उनसे मिलने का , आज है सामने आया ,
पड़े हम जेल में आकर , वे घर हुक्का ले बैठे हैं .
रखे जो रंजिशें दिल में , कभी न वो बदलता है ,
भले ही अपने होठों पर , तबस्सुम ले के बैठे है .
नज़ीर ''शालिनी '' की ये , नज़रअंदाज़ मत करना ,
कहीं न कहना पड़ जाये , मियां तो लुट के बैठे हैं .
........................................................
[मौलिक व् अप्रकाशित ]
शालिनी कौशिक
Comment
बहुत बेहतरीन गजल और भाव आदरणीया शालिनी जी आपको यहाँ देखकर खुशी हुई!
नहीं वे जानते मुझको, दुश्मनी करके बैठे हैं ,
मेरे कुछ मिलने वाले भी, उन्हीं से मिलके बैठे हैं ,....क्या कहने..
आ0 शालिनी बहन, बेहतरीन ग़ज़ल हुई हैं. हार्दिक बधाई
समझकर वे मुझे कायर, बहुत खुश हो रहे नादाँ
क़त्ल करने मुझे देखो , कब्र में घुस के बैठे हैं ..... ....सुन्दर रचना..... हार्दिक बधाई, आदरणीया शालिनी कौशिक जी !
बेहद उम्दा ग़ज़ल ,वाह वाह ! क्या बात है
नहीं वे जानते मुझको, दुश्मनी करके बैठे हैं ,
मेरे कुछ मिलने वाले भी, उन्हीं से मिलके बैठे हैं ,
समझकर वे मुझे कायर, बहुत खुश हो रहे नादाँ
क़त्ल करने मुझे देखो , कब्र में घुस के बैठे हैं .
सुन्दर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया शालिनी जी
वाहहह
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