लग गयी हमारे-तुम्हारे प्यार को,
कुछ हवा शायद जो नज़र होती है !
और नज़र उतारती थी जो अम्मा,
अब कौन जानता किधर सोती है !
मुस्कराते थे पनघट, जो हम पर ,
उनकी हँसी अब उन्हीं पर रोती है !
लगे हमारे तुम्हारे मिलन पर पहरे,
दीवार हर बात- बात पर रोती है !
मिल नहीं पाता मैं अब तुमसे ,
तुमसे ख्वाबों में मुलाकात होती है !
दिन नहीं होता धरती पर अब ,
अब धरती पर सिर्फ रात होती है!
मरू सी लगती मन की धरा ,
धरा पर अश्रुओं की बरसात होती है!
किस बात पर नाराज हैं सब,
प्यार की भी कोई जात होती है ?
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
रचना पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आदरणीय अमन जी !
उत्साहवर्धन और सराहना हेतु दिल से आभार आपका आदरणीय खुर्शीद खैराड़ी साहब सादर !
रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत - बहुत धन्यवाद आदरणीया राजेश कुमारी जी ! सादर
आदरणीय gumnaam pithoragarhi जी , उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार सादर!
शिशिर जी रचना पर सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार !
अति सुंदर !
मरू सी लगती मन की धरा ,
धरा पर अश्रुओं की बरसात होती है!
आदरणीय हरिप्रकाश सर ,सुन्दर भावों से सजी प्रेमपगी रचना हेतु आपको बधाई |सादर अभिनन्दन |
मिल नहीं पाता मैं अब तुमसे ,
तुमसे ख्वाबों में मुलाकात होती है !-----बहुत खूब
सुन्दर प्रस्तुति हुई है बहुत बहुत बधाई हरिप्रकाश जी
रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत - बहुत धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा त्रिपाठी जी ! सादर
और नज़र उतारती थी जो अम्मा,
अब कौन जानता किधर सोती है !
वाह सर जी खूब कहा वाह
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