दिये की बाती मैं
धुए में घिर जाती हूं
कुछ पल को घबराती
तो कुछ पल इठलाती हूँ
चीर तिमिर की छाती मैं
भू को ज्योतिर्मय कर जाती हूँ
अनिल तूफानी तेज हुए
भावुक मन और उत्तेजित हुए
ज्योति शिखर पे नर्तन करती
लिपट दिये के अंतस में
क्षण भर को शर्माती
और सहज धीर बढ़ाती हूँ
राग अनोखे गाती मैं
रागिनी को अपना पाती हूँ
आह समेटे... चाह लिए
क्षणभंगुर आतुर जीवन में
खाक हुई... पीर छिपाई
ज़र्रे ज़र्रे को रोशन करती
अपलक रास रचाती हूँ
दिये की बाती मैं ..
धुए में घिर जाती हूँ
निपट अकेली निडर कभी
उज्ज्वलित निशा को करके….
दिये में ही खो जाती हूँ
@आनंद ११/०१/२०१५ "मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
खूबसूरत भाव के साथ कविता अच्छी हुई है आनंद जी!
आदरणीय आनंद भाई , खूबसूरत कविता के लिये बधाई ॥
क्षणभंगुर आतुर जीवन में
खाक हुई... पीर छिपाई
ज़र्रे ज़र्रे को रोशन करती
अपलक रास रचाती हूँ ........खूबसूरत रचना ,आदरणीय आन्नद मूर्ति जी सुन्दर कविता। हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति के लिए।
आदरणीय आन्नद मूर्ति साहब , सुन्दर कविता है |बधाई स्वीकार करें |सादर अभिनन्दन |
आदरणीय भाई आनंद जी, इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई l
चीर तिमिर की छाती मैं
भू को ज्योतिर्मय कर जाती हूँ
अनिल तूफानी तेज हुए
भावुक मन और उत्तेजित हुए
ज्योति शिखर पे नर्तन करती
लिपट दिये के अंतस में
क्षण भर को शर्माती
और सहज धीर बढ़ाती हूँ-----------------------सुन्दर भाव i
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति //हार्दिक बधाई आपको |
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