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बस गया है लाल बाहर क्या करे
हो गया है खेत बंजर क्या करे
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एक बूढ़ी माँ अकेली रह गई
काटने को दौड़ता घर क्या करे
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चाँद लौटेगा नहीं अब, है पता
रात भर रोकर भी अम्बर क्या करे
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ठोकरें खाना खिलाना भाग्य में
राह का टूटा वो पत्थर क्या करे
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रीत तो थी, जिंदगी भर साथ की
दे गया धोखा जो सहचर क्या करे
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हाथ आयी करवटों की बेबसी
मखमली है पास बिस्तर क्या करे
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है ‘मुसाफिर’ भाग्य में केवल सफर
सिर्फ यादों में बसा घर क्या करे
रचना - 5 जनवरी 15
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
सभी अशआर अच्छे लगे ,बहुत-बहुत बधाई |
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, सभी अशआर अच्छे लगें, बहुत बहुत बधाई.
है ‘मुसाफिर’ भाग्य में केवल सफर
सिर्फ यादों में बसा घर क्या करे ,
सच है भाई दुनिया में हर कोई मुसाफिर ही तो है ...सुंदर भाव
सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय laxman dhami जी !
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