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बिस्तर पर सिलवटें

सुबह शाम

दफ्तर काम

ढलता सूरज

उगता चाँद

रात, तुम्हारी याद

आखों से बरसात !!

कभी भूख

कभी प्यास

कभी हर्ष

कभी विषाद

तन्हाई, रात वीरान

सुलगते हुए अरमान !!

तन्हा सफर

स्ट्रीट लाईट

पाखी जलता

मन मचलता

प्यास, बैचैन करवटें

बिस्तर पर सिलवटें !!

उगता सूरज

आँखें लाल

वही सवाल

वही मदहोशी

गुम, खुद में कहीं

नहीं सुध किसी चीज़ की !!

फिर वही

सिलसिला

सुबह शाम

दफ्तर काम

ढलता सूरज

उगता चाँद

रात, तुम्हारी याद

आखों से बरसात !!

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

 

 

 

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 10, 2015 at 10:30am

आदरणीय हरि भाई , मशीनी ज़िन्दगी का खूब चित्र खींचा है , बधाइयाँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 9, 2015 at 11:14pm

बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ... यंत्र सी चलती ज़िन्दगी पर अच्छी रचना हुई है ... आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी इस रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 9, 2015 at 10:31pm

सुबह से शाम, शाम से सुबह ..काम और बस काम, मानो मानव न हुआ मशीन हो गया, यही जिन्दगी है......इस अभिव्यक्ति पर बधाई. 

Comment by somesh kumar on February 9, 2015 at 10:15pm

जीवन की उलझन में दिन 

रात कटे ना तुम बिन 

तकलीफे हैं मीठा गुड़ 

यादे लगती हैं नमकीन |

इस विशेशष टिपण्णी के साथ आपके इस अलग प्रयास का अनुमोदन भाई जी |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 9, 2015 at 3:48pm

सरल शब्दों में दैनिक जीवन का सुंदर बखान. बधाई आदरणीय हरिप्रकाश जी.

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 9, 2015 at 10:59am
एक सामान्य सी दिनचर्या का सुन्दर वर्णन , आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी , बधाई, सादर।

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"आ. भाई गणेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।"
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