कब तक मनाऊँ मैं, वो अक्सर रूठ जाते हैं|
गर्दिश में अक्सर.... हर सहारे छूट जाते हैं|1
न मनाने का सलीका है,न रिझाने का तरीका है|
मनाते ही मनाते वो अक्सर रूठ जाते है|2
संजोकर दिल में रखता हूँ,नजर को खूब पढ़ता हूँ|
मगर खास होते ही ,अक्सर नजारे छूट जाते हैं|3
आयना समझकर हम.., उन्ही को देख जाते हैं|
संभालने की ही कोशिश में,जो अक्सर टूट जाते हैं|4
सब्र करता हूँ कि मेरे शब्दों में खामी हैं |
नारी अनबन से घरों में,अक्सर मुहारे फ़ूट जाते हैं|5
कब तक मनाऊँ मैं, वो अक्सर रूठ जाते हैं|
पढ़कर हमीं को ,दोस्त पुराने लूट जाते हैं|6
कब तक मनाऊँ मैं........................................
@आनद 08/02/2015 "मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
अच्छी रचना है ,बहुत- बहुत बधाई आप प्रयास करते रहिये ग़ज़ल लिखने में एक दिन कामयाब होंगे बहरहाल शुभकामनायें
आनंद जी
बहुत अच्छा कहा आपने i सस्नेह i
आदरणीय आनंद मूर्थी जी |उम्दा ग़ज़ल हुई है |सादर अभिनन्दन |
कब तक मनाऊँ मैं, वो अक्सर रूठ जाते हैं
पढ़कर हमीं को ,दोस्त पुराने लूट जाते है|....
शुभकामनायें , आपको !
अच्छी प्रयास पर आपको बधाई |
आदरणीय , एक अच्छा प्रयास के लिये बधाइयाँ ।
प्रयास और प्रस्तुति पर बधाई.
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