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आशिक़ों की आँखो का रुख़ बदलने लगता है
जब किसी जवानी का चाँद ढलने लगता है

इब्तिदा ख़ुशामद से इल्तिजा से होती है
और फिर ये होता है,नाम चलने लगता है

सब्र की नसीहत भी काम कुछ नहीं करती
जब किसी की चाहत में दिल मचलने लगता है

हमने दिल को ले जाकर उस जगह पे रख्खा है
जिस जगह पे ख़्वाहिश का दम निकलने लगता है

जब भी मैं अंधेरों से हमकलाम होता हूँ
इक चराग़ सा मेरे दिल में जलने लगता है

आख़िरत के बारे में जब भी सोचता हूँ मैं
रूह कांप जाती है दिल दहलने लगता है

किस लिये हो अफ़सुर्दा ,क्यूँ "समर" परीशाँ हो
रात जब गुज़रती है दिन निकलने लगता है

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकशित

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Comment by Samar kabeer on February 16, 2015 at 10:07pm
जनाब हरि प्रकाश दुबे जी,आदाब,बहुत बहुत शुक्रिया मित्र |
Comment by Hari Prakash Dubey on February 16, 2015 at 7:16pm

आदरणीय समर कबीर जी बहुत खूब //आख़िरत के बारे में जब भी सोचता हूँ मैं
रूह कांप जाती है दिल दहलने लगता है// सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई आपको !

Comment by Samar kabeer on February 16, 2015 at 1:21pm
जनाब डा.गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,आदाब,हुज़ूरे वाला बहुत बहुत शुक्रिया |
Comment by Samar kabeer on February 16, 2015 at 1:17pm
जनाब डा.विजय शंकर जी,आदाब,हौसला अफ़ज़ाई के लिये बहुत बहुत शुक्रिया|
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 16, 2015 at 12:58pm

बहुत बढ़िया

कबीर साहेब  आपको बधाई i

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 16, 2015 at 12:11pm
ग़ज़ल अच्छी बनी है आदरणीय समर कबीर जी, बधाई, सादर।

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