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झील के पानी को फिर से बादलों ताजा करो
नीर हो झरते रहो तुम मत कभी ठहरा करो
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सिर्फ गर्जन के लिए कब धूप जनती है तुम्हें
प्यास खेतों की बुझाओ खेल से तौबा करो
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जान का भय किसलिए है परहितों की बात जब
धुंध का परदा हटाओ दूर तक देखा करो
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सूर्य के तुम वंशजों में छोड़ दो मायूसियाँ
त्याग दो जीवन भले ही तम को मत पूजा करो
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यूँ अँधेरों की तिजारत करके हासिल क्या हुआ
होश में आओ जरा अब रौशनी बाँटा करो
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मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ0 भाई हरिप्रकाश जी , गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई विजय शंकर जी गजल का अनुमोदन करने के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय लक्षमण धामी जी सुन्दर ग़ज़ल है बधाई आपको !
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