अचानक घिर आये बादलों को देखकर बल्लू घबरा गया , हवाएँ भी तेज हो गयी थीं | मार्च का महीना , गेहूं की फसल अपनी जवानी पर थी , बालियां निकल आई थीं और कुछ दिनों में इनके पकने की शुरुवात होने वाली थी |
कल खेत से लौटते हुए मन कितना हर्षित था उसका , इस बार तो बैंक का क़र्ज़ चुका ही देगा | पिछले हफ्ते ही नोटिस आया था क़िस्त जमा करने के लिए और उसने उसे बेफिक्री से फेंक दिया था | एक गाय भी लेनी थी उसे इस बार , फिर तो दूध से भी थोड़ी आमदनी बढ़ जाएगी | रात में उसने पत्नी को प्यार से बाँहों में भींच लिया , वो भी मुस्कुरा उठी थी |
देखते ही देखते मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी , हवाएँ भी रौद्र रूप धारण कर चुकी थीं | बिल्लू गिरते पड़ते खेत की ओर भागा, कल तक दूर से नज़र आने वाली हरियाली आज जमींदोज हो गयी थी | उसको देख मुस्कुराने वाली फसल अब उससे मुंह मोड़ कर ज़मीन से इश्क़ फ़रमा रही थी , उसके सपने तेज हवाओं ने अपने साथ उड़ा दिए थे |
पर इस सबसे दूर शहरों में लोगों को मौसम सुहावना लगने लगा था |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
इस लघुकथा के लिए..बहुत बहुत बधाई!!....जमीन से जुडी हुई,और सामयिक प्रस्तुति पर आपको अभिनन्दन!
बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा , आदरणीय विनय जी. आपकी लघुकथा एक ऐसी सच पर कसी हुई है जिसे मैं पूर्ण रूप से स्वीकारता हूँ,. केवल एक आशा के भरोसे बो दिए गए बीज पर निर्भर, कई उम्मीदें जिनमे माता-पिता की सेवायें ,पत्नी की खुशियाँ, बच्चों का भविष्य और कुछ भविष्य को सुरक्षित और संजोने के उपाय. बस! इसके बाद चार-पांच माह तक उन बीजों को धरती के गर्भ में डालकर कई समस्याओं से जूझते हुए फलदार पौधे बन जाने का सफ़र सिर्फ आशाओं पर ही केन्द्रित रहता है. जब फसल सुनहरी पकी हुई खड़ी रहती तो हमारे यहाँ उसे परोसी हुई थाली कहा जाता है. ऐसा भी कहा जाता है कि जब तक फसल निकालकर घर में न भरा जाए तब अपनी नहीं है. आशाओं और निराशाओं के बीच काफी कुछ देखने को मिलता है. लेकिन हर जगह समझोते को ही स्वीकारा जाता है. आवारा या खुद के जानवर थोड़ी फसल खा भी लेते है, फसल कटाई व् निकालते समय खेत और खले में झड जाती है जिसे पूरी तरह से एकत्रित नही किया जा सकता, तब यही कहकर संतुष्टि कि वो गौ ,धरती और आँगन का हिस्सा था जो उन्होंने रख लिया. इन आशाओं के पश्चात जब आपदायें इन्हें छीन लेती है तो दो-तीन वर्ष तक वोही मंजर ,आँखों के सामने बना रहता है, और जुट रहते है एक आशाओं के पूर्ण होने वाले वर्ष के लिए.
आपको लघुकथा पर बहुत-बहुत बधाई व् शुभकामनायें
बहुत बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी ..
बिलकुल सच कहा आपने , बहुत बहुत आभार आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय गुमनाम पिथौरागढ़ी जी , टाइपिंग त्रुटि है वो , नाम बल्लू ही है ..
बिलकुल सही कहा आपने आदरणीय सोमेश कुमार जी , आपकी बात सोलहो आना सच है | शहर में भी एक तबका रहता है जिसका जुड़ाव अभी भी गांव से है क्योंकि उनकी जमीने हैं वहां | बाकी लोगो के लिए तो ये मौसम पिकनिक मनाने के जैसा होता है ..
बिलकुल सही कहा आपने आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव ji..
सामयिक और प्रासंगिक सफल लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय विनय जी
भाई विनय जी, इसी को कहतें हैं ,केहू के मरे भंईस केहू बजावे खपरी , सुन्दर और सामयिक लघुकथा पर बधाई !
वाह सर जी आपके द्वारा बहुत अच्छी लघु कथाएं प्रस्तुत की जाती है ........ पर यहाँ पर बिल्लू और बबलू एक ही हैं या अलग अलग ...............
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