112 212 221 212
बस कर ये सितम के,अब सजा न दे
हय! लम्बी उम्र की तू दुआ न दे।
अपनी सनम थोड़ी सी वफ़ा न दे
मुझको बेवफ़ाई की अदा न दे।
गुजरा वख्त लौटा है कभी क्या?
सुबहो शाम उसको तू सदा न दे।
कलमा नाम का तेरे पढ़ा करूँ
गरतू मोहब्बतों में दगा न दे।
इनसानियत को जो ना समझ सके
मुझको धर्म वो मेरे खुदा न दे।
रखके रू लिफ़ाफे में इश्क़ डुबो
ख़त मै वो जिसे साकी पता न दे।
न किसी काम का है हुनर सुखन
जब दो जून की रोटी, कबा न दे। (कबा = कपड़े)
लिखता हूँ जिगर में आग को लिए
तुझको शेर मेरा उफ़! जला न दे।
रहने दें सता मत जिन्दगी उसे
परदा ‘’जान’’ तेरा गो हटा न दे।
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
इसके अनुसार नीचे लिखा वजन कैसे शेर के विन्यास में बैठेगी??
112 212 221 212
न तो यूं ज़िन्दगी होगी दुआ न दे
ये तो है जख्म तू ऐसी हवा न दे
ऊपर लिखे मतले के शेर का वजन तो ये होगा--122 212 221 212
मेरे समझने में कुछ गलती हो रही है. तो कृपया स्पष्ट करे सर!सादर
आ. जान साहब सबब-ए -ख़फ़ीक --दिखने में दो लाम (लघु) जैसे होते हैं किंतु इनका उच्चारण एक साथ होने से इन्हें गाफ़ (गुरु) ही गिनते हैं |उदहारण ...बस ,जब .अब .ख़त .उस ,मुझ ,गर, अप (आपकी ग़ज़ल के पहले रुक्न के सभी अव्वल जुज )....इन्हें 11 के स्थान पर 2 ही बाँधा जायेगा .....यही आदरणीय मिथिलेश जी कहना चाह रहे हैं|सादर
आ० खुर्शीद खैरादी सर जी तारीफ़ के लिए आभार! सर! आपके आलोचना सहित मार्गदर्शन का आकान्छी हूँ!!सादर!
आ० shyam mathpal जी प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
आदरणीय राज बुन्देली जी खुलेदिल से हैसलाफजई के लिए बहुत बहुत आभार!! शुक्रिया!
आ० हरी प्रकाश दुबे जी रचना को आशीर्वाद देने के लिए बहुत बहुत आभार!
भाई महर्षि त्रिपाठी जी हौसलाफजाई के लिए तहेदिल से शुक्रिया!!
आ० मिथिलेश सर आपकी बात को मै समझ नही पा रहा हूँ कृपया विस्तार दें!
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